Monday, July 28, 2008

ब्रेस, ब्रेस, ब्रेसू टी यानी जो दल ग्या वो मल ग्या

किराए के जिस दोमंज़िला मकान में हम रहते थे वह तीन बराबर हिस्सों में बंटा हुआ था यानी तीन भाइयों के तीन हिस्से. हमारे और बगल वाले सैट के मालिक पास ही के चोरपानी नामक गांव में रहते थे. हिन्दुस्तान की तरफ़ के कोने वाले ही अपने मकान में रहते थे उनका बेटा बंटू मेरा हम उमर था और मेरा दोस्त था. हम लोग अक्सर छत पर खेला करते थे. अपनी खुराफ़ातों को अस्थाई निजात दे कर लफत्तू भी हमारे साथ हुआ करता था. छत का एक हिस्सा तीन बराबर हिस्सों में बंटा हुआ था और उन तीन हिस्सों के बीच दो-ढाई फ़ीट की दीवारें उठाई गई थीं. ये दीवारें बैडमिन्टन खेलते समय काम आती थीं. दीवारों के कारण खिलाड़ियों के लिए ऑटोमैटिकली पाले बन जाते थे. कभी-कभी तो इन तीन छतों पर एक साथ दो-दो मैच चल जाया करते थे. ऐसी स्थिति में बीच की छत कॉमन हो जाती.

शामों को बंटू की मम्मी, मेरी बहनें और पड़ोस में रहने वाली कुछ लड़कियां हमारे राकेट ले लेतीं और राकेट-चुड़िया का खेल खेलतीं. खेलने की उनकी शैली को बैडमिन्टन तो नहीं कहा जा सकता था. चुड़िया को राकेट से जैसे-तैसे मार पाने की कोशिश करती इन उत्साही खिलाड़िनों को देख कर लगता जैसे तनिक ऊंचे तार पर सुखाने के लिए उचक-उचक कर बरसात में भीग गया गद्दा या गलीचा फैलाने का जतन कर रही हों. वहां खड़ा होना आलस और बोरियत से भर देता था. सो हम लोग क्रिकेट खेलने लगते थे.

छत के तीन-पाला हिस्से के बाद तीनों सैटों के, तीन तरफ़ से खुले हुए तीन बड़े बड़े रोशनदान थे. रोशनदानों के बाद पानी की तीन ऊंची-ऊंची टंकियां थीं. इन टंकियों के बाद क़रीब चार फ़ुट चौड़ा और काफ़ी लम्बा हिस्सा था जो क्रिकेट खेलने के लिए बहुत मुफ़ीद था. यानी खेलने के पिच इतनी लम्बी थी कि बकौल लफ़त्तू वहां वेस्ट इंडिया के काले गेंदबाज़ों सरीखी फ़ाश्टमफ़ाश्टेश्ट बॉलिंग भी हो सकती थी. हमारी रसोई की चिमनी विकेट बनती जबकि बंटू वाली चिमनी से गेंदबाज़ी होती.

लफ़त्तू खेलता कभी नहीं था: न क्रिकेट, न फ़िटबाल न बैटमिन्डल. लेकिन वह मुझे अपना दोस्त मानता था और बावजूद इस तथ्य के कि मेरा बड़ा भाई उसे एकाधिक बार हमारे घर में उसे आया देख उसे अस्वीकृत और जलील कर चुका था, वह जैसे तैसे हर शाम हमारी छत पर पहुंच जाता था. वह अक्सर हरिया हकले की छत से होकर आया करता था.

हमारी छत से इस वाली तरफ़ ढाबू की छत थी. ढाबू की छत के बारे में कभी विस्तार से बताऊंगा. उसके आगे एक तरफ़ साईंबाबा की छत थी. इस मकान का धार्मिक महत्व वहां साईंबाबा नाम से कुख्यात एक लफ़ंडरशिरोमणि की वजह से था जो हर महीने नींद की चार-पांच नकली गोलियां खा कर आत्महत्या करने के नाटक के मंचन और प्रदर्शन में निपुण हो चुका था. लम्बे घुंघराले बालों और सदैव काले पॉलीएस्टर की खरगोश-शर्ट और काली ही बेलबाटम पहनने वाले साईंबाबा के बारे में एक बार मुझे लफ़त्तू ने कॉन्फ़ीडेन्शियल सूचना दी थी कि वह "बला लौंदियाबाज" है और हर महीने आत्महत्या-मंचन के पहले भवानीगंज में एक "पैतेवाले" सरदार जी के घर बढ़िया से धुन कर आता है. मैं अक्सर ही लफ़त्तू के आत्मविश्वास और 'एडल्ट' ज्ञान के अपार भंडार पर अचरज किया करता था. ढाबू की छत के दूसरी तरफ़ हरिया हकले की छत थी.

लफ़त्तू खेलता नहीं था सो अपनी उपस्थिति को जस्टीफ़ाइ करने के लिए वह स्वयंसेवक अम्पायर बन जाने का आधिकारिक काम सम्हाल लेता था. एक उंगली उठाकर आउट देता और दो उंगलियां उठाकर नॉट आउट. पहली बॉल "ट्राई" होती थी और इस में "ट्राईबॉल - कैच आउट - नो रन" का सनातन नियम चला करता था. खेल शुरू होने से पहले वह एक छोटे गोल पत्थर के एक तरफ़ थूक कर टॉस करता था जिसमें "गील" या "सूख" से पहले बल्लेबाज़ी करने वाला तय होता था.


ज़्यादा समय नहीं होता था जब छत के महिला खेल-मैदान वाले हिस्से से लफ़त्तू को पुकार लग जाया करती. "अभी लाया आन्तीजी" कहता लफ़त्तू चीते की फ़ुर्ती से पहले हमारी गेंद अपने कब्ज़े में लेता और तुरन्त सीढ़ियां उतरकर चुड़िया ले आता. गेंद अपने साथ ले जाने के पीछे उसका तर्क होता था कि वह अम्पायर है. बस. चुड़िया अक्सर किसी एक रोशनदान से नीचे गई होती और डेढ़-दो मिनट में लफ़त्तू अपनी आधिकारिक पोज़ीशन पर होता और गेंद थमा कर "दुबाला इस्टाट!" का आदेश पारित करता. लेकिन जब कभी चुड़िया दूसरी तरफ़ यानी सड़क पर गिर जाया करती, लफ़त्तू को बहुत काम करना पड़ता था. कोई पांच मिनट तक खेल रुका रहता और जब लफ़त्तू चुड़िया समेत लौटता, उस का चेहरा लाल पड़ा होता.

गेंद साथ ले जाने की उसकी आदत के चलते हमारा बहुत बखत खराब होता था और हम ने इस बाबत एकाध बार असफल वाद-विवाद प्रतियोगिताएं भी आयोजित कीं पर लफ़त्तू हमेशा "बेता, लूल तो लूल होता है" कह कर हमें चुपा देता. हमें उसकी धौंस इस लिए भी सहनी पड़ती थी कि उसके पास एक और अतिरिक्त प्रभार था.

बैटिंग करते हुए लेग साइड के शॉट तो टंकियों की दीवारों से टकराकर वापस पिच पर आ जाते पर ऑफ़ साइड वाले अक्सर ढाबू की छत पर पहुंच जाते या उससे भी आगे हरिया हकले या साईंबाबा की छत पर. छतों को अलग-अलग दिखाने भर मात्र की नीयत से बनीं दोएक फ़ुट की बाड़नुमा दीवारें थीं. लफ़त्तू की उपस्थिति हमारे खेल के लिए यों भी लाज़िम थी कि इन छतों से गेंद वापस लाने का काम भी उसी का था. कभी कभार वह हरिया हकले की छत के कोने पर जा कर कहता कि गेंद उछल कर सड़क से होती हुई दूधिए की गली में गोबर में जा गिरी है. हम दोनों परेशान हो कर उस के पास पहुंचते तो वह कुछ समय सस्पेन्स बनाने के बाद अपनी निक्कर के गुप्त हिस्से से गेंद बाहर निकाल कर दांत निपोरता, आंख मारता और ठठाकर हंसता: "तूतिया बना दिया छालों को ... तूतिया बना दिया छालों को".

इस खेल में दिक्कत शॉर्टपिच गेंदों पर होती थी. बैटिंग वाली चिमनी के पीछे ईंटों के खड़ंजे वाली दूधिये की बेहद संकरी गली थी. इस गली में स्थित पप्पी मान्टेसरी पब्लिक स्कूल हमारे विकेट के ठीक पीछे पड़ता था. स्कूल क्या था एक घर था जिसके पिछवाड़े हिस्से में चार-पांच कमरे निकाल कर कुछ बच्चों के बैठने की जगह बनाई गई थी. मकान के दूर वाले हिस्से में एक सिख परिवार रहता था. सरदारनी बहुत मुटल्ली थी और उनकी आधा या पौन दर्ज़न सुन्दर लड़कियां थीं. सबसे छोटी क़रीब पन्द्रह की रही होगी जबकी सबसे बड़ी कॉलेज पास कर चुकी थी और पप्पी मान्टेसरी पब्लिक स्कूल की प्रिंसीपल थी. सरदारनी की हर लड़की कोई न कोई उचित मौका देख कर घर से भाग चुकी थी. और रामनगर में यही इस घर का यू. एस. पी. माना जाता था. घर-पड़ोस की औरतें अक्सर इस घर की तारीफ़ में इतने क़सीदे काढ़ चुकी थीं कि उनसे कोई मेज़पोश बनाता तो सारे रामनगर के आसमान को उस से ढंका जा सकता था. लफ़त्तू उस घर के आगे से गुज़रता तो मुंह में दो उंगली घुसा कर सीटी बजाता और उन दिनों रामनगर में लोकप्रिय हुए लफ़ाड़ी-गान "बीयो ... ओ ... ओ ... ई" को ऊंचे स्वर में गाया करता. उसे किसी का ख़ौफ़ नहीं था. "जो दल ग्या बेते वो मल ग्या" - यह जुमला उसने इधर ही 'शोले' देखने के बाद से अपना अस्थाई तकियाक़लाम बना छोड़ा था.

पप्पी मान्टेसरी पब्लिक स्कूल वाली इमारत को हम सरदारनी का घर कहते थे. इस एक मंज़िला मकान की छत पर बहुत-बहुत बड़ा रोशनदान था. हमारी छत से उस रोशनदान के भीतर देखा जा सकता था. स्कूल में पढ़ने वाले क़रीब चालीसेक बच्चों की वहां असेम्बली लगती थी. असेम्बली के बाद मधुबाला जैसी दिखने वाली एक बहुत सुन्दर मास्टरनी वहीं पर बच्चों को अंग्रेज़ी की कविताएं रटाती थी. शाम को यही सब बच्चे ट्यूशन पढ़ने वहां आते और मधुबाला द्वारा कविता घोटाए जाने का कार्य पुनः सम्पन्न किया जाता. बहती नाकों वाले, अलग-अलग तरीकों से रोने वाले ये बच्चे बरास्ते सरदारनी के रोशनदान सामूहिक रूप से आसमान गुंजाने का काम किया करते:

"ब्रेस, ब्रेस, ब्रेसू टी
ब्रेसू अब्री डे
फ़ादर मदर ब्रादर सिस्टर
ब्रेसू अब्री डे

भात, भात, भातू आल
भातू अब्री डे
फ़ादर मदर ब्रादर सिस्टर
ब्रेसू अब्री डे ..."

(इन कालजयी महाकाव्यात्मक पंक्तियों में एक संस्कारी परिवार के समस्त संस्कारी सदस्यों से आयु-लिंग इत्यादि का भेद भुलाते हुए दन्तमंजन तथा स्नान में नित्य रत रहने का आह्वान किया जाता था)

अब मैं सकीना से मोब्बत और सादी के खयालात नहीं रखता था सो मधुबाला से आसिकी कर रहा था. इस दूसरे प्रेम प्रसंग में लफ़त्तू की बताई एडल्ट टिप्स के कुछ सुदूर रंग स्मृति में झलक दिखा जाते थे लेकिन समझ में ज़्यादा न आने के कारण वे अन्ततः किसी सलेटी किस्म के गुबार में ग़ायब हो जाते थे.

ख़ैर! शॉर्ट पिच गेंद सीधी उठती हुई सरदारनी के रोशनदान में घुस जाती थी: चाहे बल्ला लगे या ना लगे. इन गेंदों का रिट्रीवल असंभव होता था और हमें नई गेंदों के लिए बड़ों की चिरौरी करनी होती थी. दस पैसे देने से बड़ों के इन्कार कर दिये जाने की सूरत में मैं और बंटू गमी मनाने के मोड में आ जाते अलबत्ता लफ़त्तू का मूड बन जाता. वह गाने लगता. उसका तोतला गान मोम्म्द रफी के गाने "ताए कोई मुजे दंगली कए" से उठता हुआ किशोर दा के "मेले नेना छाबन बादो" से "दे दी हमें आज़ादी बिना लोती बिना दाल" जैसी पैरोडियों से होता नौटंकियों से सीखे "लौंदा पतवारी का" जैसे एडल्ट गानों तक पहुंचता. इस परफ़ॉरमेन्स का चरम, विकेटरूपी चिमनी से सटकर लफ़त्तू के खड़े हो जाने पर आता था. मैं और बंटू पीछे दुबक जाते. वहां पर खड़ा लफ़त्तू सरदारनी के घर की तरफ़ देखता हुआ बेशर्मी से ज़ोर-ज़ोर से गाता:

"खेल, खेल, खेलू बाल
खेलू अब्री डे
फ़ाद्ल मदल ब्लादल सिस्टल
खेलू अब्री डे ... "

अगले स्टैज़ा में वह खेल के 'ख' को 'भ' में बदल देता. कुमाऊंनी में इस से बनने वाले शब्द से अभिप्राय मनुष्य देह के पृष्ठभाग में अवस्थित उस क्षेत्रविशेष से है जिस पर अक्सर लातें पड़ती हैं और जो उत्तर भारत की अंतरंग पुरुष-भाषा की शब्दावली का विशिष्ट घटक होता है.

इसी को गाता-गुनगुनाता वह हमसे विदा लेता. सरदारनी उस के पापा से उसकी शिकायत कर चुकी होगी: यह उसे पता रहता था. पर हमारी तरफ़ आंख मार कर वह कहता: "जो दल ग्या बेते वो मल ग्या"

(यह पोस्ट 'आर्ट ऑफ़ रीडिंग' में कल लगी पोस्ट के कारण आज लिखी गई. इस लिहाज़ से मुनीश को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए. कल रात लिए गए वायदे के मुताबिक यह पोस्ट हरी मिर्च वाले मनीष जोशी और उन मित्रों के लिए सप्रेम समर्पित है जो मुझे इस ब्लॉग पर नियमित होने को कहा करते हैं. उम्मीद है अब मैं ऐसा कर पाऊंगा.

फ़ोटो 'आर्ट ऑफ़ रीडिंग' के सरगना इरफ़ान ने कुछ महीने पहले कबाड़ख़ाने पर इसी ब्लॉग के वास्ते लगाई थी. इरफ़ान का सूखरिया ...)