Thursday, July 30, 2009

ज्याउल, उरस की मूफल्ली, मोर्रम और ब्रिच्छारौपड़ - ६

लफ़त्तू और मैं हरिया हकले की छत फांद ही रहे थे जब पीछे से बन्टू की आवाज़ आई: "रुको मैं भी आ रहा हूं यार." ज़ीना उतर कर हम दूधिये वाली संकरी गली में थे. सरदारनी का स्कूल की तरफ़ जाने के बजाए हम बाईं तरफ़ वाली गली में मुड़ गए जहां से हमें सीधे घासमंडी पहुंच जाना था. घासमंडी की तमाम दुकानों के आगे लोग मोर्रम के जुलूस के वहां तक पहुंच जाने की प्रतीक्षा में थे. हम लालसिंह की दुकान पर पहुंचे ही थे कि बन्टू पर भय का दौरा सा पड़ा. वह वापस घर जाने की बात करने लगा तो लफ़त्तू ने थूकते हुए कहा: "दलपोक थाला."

डरपोक कहे जाने से बन्टू का स्वाभिमान आहत हुआ और उसने वापस जाने की योजना मुल्तवी कर दी.

"अब यईं पल लुके लओ" लफ़त्तू साधिकार बोला.

जुलूस हमारे घर से आगे निकल रहा था और हम तक पहुंचा ही चाहता था. रात घिर आने के बावजूद बैन्डगाड़ी के आगे सीना पीट रहे छोटे बच्चों में से कुछ के परिचित चेहरे पहचाने जा सकते थे. मोर्रम के जुलूस को छत से देखना और बात थी यहां उसे रू-ब-रू अपने नज़दीक आते देखना और. ढोलों की धमक जैसे हमारे पेटों से उठती हुई दिमाग तक पहुंचती लग रही थी. यह रोंगटे खड़े कर देने वाली आवाज़ें थीं.

बैन्डगाड़ी के एक तरफ़ दो बड़ी बड़ी देगचियां रखी हुई थीं. बच्चे देगची-इन्चार्ज के पास जाते, उसकी चिरौरी करते और मुठ्ठी भर कुछ माल पा-खा कर पुनः सीनाफोड़ीकरण में लग जाते.

बैन्डगाड़ी हमारे ऐन सामने थी. देगची-इन्चार्ज को मैंने पहचान लिया. बन्टू ने भी. वह बन्टू लोगों के घर चलती रहने वाली शाश्वत मरम्मतों का निर्देशन करने वाला बहरा मिस्त्री था जो बार-बार बताए जाने के बावजूद कुछ न कुछ ऐसी वास्तुशिल्पीय गड़बड़ कर दिया करता था कि घर लौटने पर बन्टू के पापा उसे काला चश्मा लगाए लगाए ही डांटना शुरू कर दिया करते थे.

देगची-इन्चार्ज ने भी हमें दूर से ताड़ लिया और इशारे से अपने नज़दीक बुलाया. बन्टू ने एक पल की भी देर नहीं लगाई और हम बैन्डगाड़ी के ऐन बगल में थे. बहरे मिस्त्री ने खूब बड़े बड़े तीन पत्तलों में माल भर कर हमें थमाया और हम बिजली की गति से घासमंडी के उस तरफ़ पसू अस्पताल से सटे एक टीले की तरफ़ भाग चले.

पत्तलों में जलेबी वाली गरम गरम बूंदियां भरी हुई थीं. बन्टू ने बूंदी के मुसलमान होने का ज़िक्र किया तो लफ़त्तू ने हिकारत से उस से कहा : "मैंने का ता तुदते अपने थात आने को? तुदे वापत दाना ऐ तो दा. हता थाले को!"

बन्टू वाकई डरपोक निकला और भागता हुआ वापस अपने घर चला गया. हम बूंदी के मज़े लेने की प्रोसेस के चरम पर पहुंचने को ही थे जब अचानक एक कर्रा तमाचा खोपड़ी पर पड़ा. जब तक मैं इस प्रहार से सम्हल पाता दूसरा तमाचा पड़ा. दो सेकेन्ड के भीतर हम दोनों बांकुरे ज़मीन पर थे. दो जोड़ी बड़े बड़े हाथों ने हमारे पत्तल समेट कर कूड़े की तरह उछाल दिए.

एक लफ़त्तू का बड़ा भाई था एक उसका बीड़ीखोर दोस्त.

हमारे कान दूधिये वाली गली तक नहीं छोड़े गए. छत पर की भीड़ आखिरी ताजियों को निकलता देखने में मशगूल थी. दूधिये वाली गली के मुहाने पर हमारे कान छोड़े गए जो लगता था दो-दो हिस्सों में बंट चुके थे. लफ़त्तू के भाई ने मुझे चेताते हुए कहा कि मुझ होस्यार बच्चे को उसके भाई जैसे हौकलेट से दूर रहना चाहिये. यह भी मुसलियों के हाथ की बनी मिठाई खा चुकने के बदले में शायद कल सुबह तक हमारे हाथ झड़ जाएंगे. और यह भी कि लफ़त्तू को तो अब घर पर देखा जाएगा.

दर्द, अपमान और छोटा होने की विवशता के बावजूद मुझे लफ़त्तू के बड़े भाई के अज्ञान और गधेपन पर तरस आया. हाथ झड़ने होते तो अब तक झड़ चुके होते. मुझे भाषण दिया ही जा रहा था जब अचानक बिजली की तेज़ी से लफ़त्तू अपने भाई की गिरफ़्त से निकला और "हत थाले!" कह कर आगे अन्धेरों की तरफ़ भागता चला गया. दोनों बड़े उसे पकड़ने भागे तो मैंने अपने दुखते कान पर हाथ लगाया. वह सलामत था. जुलूस की आवाज़ अब उतनी कानफोड़ू नहीं रही थी. मैं चोरों की तरह हरिया हकले का ज़ीना चढ़कर ढाबू की छत फलांगता अपनी छत के क्रिकेट मैदान वाले हिस्से की तरफ़ आ कर टंकी की ओट हो गया. रात के खाने की योजनाएं बनाती आपस में बतियातीं मन्थर कदमों से नीचे उतरती औरतें थीं. मैदान साफ़ था. मैंने थोड़ा ऊंची आवाज़ में कुछ गाना सा गुनगुनाना शुरू कर दिया ताकि वे मेरी उपस्थिति से वाकिफ़ हो रहें

"अब कब तक छत पर रहेगा. चल हाथ मुंह धो के किताब हिताब पढ़! बहुत हो गया मुसलियों का ताजिया फाजिया. कल से स्कूल भी है."

नींद रह रह कर टूटती रही रात भर . मुझे सपना दिखता था कि लफ़त्तू की धुनाई हो रही है और वह "बचाओ बचाओ" की गुहार लगा रहा है. लेकिन सुबह वह अपना बस्ता थामे लफ़ंडरसंकेत "बी...यो...ओ...ओ...ई.." के साथ मुझे बुला रहा था.

उसका चेहरा सूजा हुआ सा लग रहा था. मैंने उसके भाई द्वारा बाद में किये गए व्यवहार के बारे में जानना चाहा पर झेंप महसूस हुई. उसने मेरा हाथ पकड़कर आंख मारते हुए कहा: "हात तो नईं धला यार तेला मुछलियों के हात की बूदी खा के बी!"

स्कूल में असेम्बली के समय प्रिंसीपल साहब के साथ एक सज्जन खड़े थे. खाकी वर्दी पहने ये सज्जन पुलिस तो कतई नहीं लग रहे थे. पर एक तरह की अफ़सरी धज उनके भीतर से ज़रूर टपक रही थी. राष्ट्रगान के बाद प्रिंसीपल साहब ने कहना शुरू किया: "बच्चो आज आप को जंगलात विभाग से पधारे सिरी जोसी जी कुछ अच्छी अच्छी बातें बताएंगे. पहले उनके स्वागत में आप लोग गीत गाएं." मुर्गादत्त मास्टर ने हारमोनियम सम्हाल लिया. इस तरह अचानक गीत गाने की हम में से किसी की तैयारी न थी. नतीज़तन मास्टर देबानन मुर्गादत्त की कर्कश ध्वनि सबसे अलग सुनाई दे रही थी. हार्मोनियम जैसे रेलगाड़ी की बग़ल में रेंग रही मालगाड़ी जैसा अलग स्वरमंजरियों का खौफ़नाक समां बांधे था. हवा में करीब तीन हज़ार बच्चों के तीन हज़ार आरोह अवरोह एक दुसरे को काट-पीट-खसोट-नोच रहे थे "आपि का सुआगत है सिरीमान. आपि का सुआगत है सिरीमान ..."

इस भीषण राग नोचखसोट के बारहताला द्रुततम ताल पर आने के उपरान्त खाकी जोसी जी ने एक एक कर पहले तो सारे मास्टरों का नाम ले ले कर धन्यवाद कहा. उसके बाद गला खंखार कर करीब आधे घन्टे हमारी ऐसी तैसी की. हमारी समझ में इतना ही आया कि हमें पेड़ लगा कर धरा को बचाना है. और पेड़ लगाने का यह काम चौबीस घन्टे, ताज़िन्दगी करते जाना है जभी धरा बचेगी.

खाकी जोसी के माइक से हटने पर एक बार पुनः प्रिंसीपल साहब ने मोर्चा सम्हाला. "जोसी साहब के निर्देशन में आज कच्छा छै और सात के बच्चे ब्रिच्छारौपड़ हेतु कोसी डाम पे जाएंगे. ब्रिच्छारौपड़ के उपरान्त बच्चे चाएं तो स्कूल आ जावें चाएं अपने घर चले जावें. कल को कच्छा आठ और नौ के बच्चे यही कारजक्रम करेंगे ..."

यानी छुट्टी. ब्रिच्छारौपड़ शब्द का मतलब लफ़त्तू की समझ में नहीं आया तो उसने मुझ से पूछा. मैंने उसे बतलाया तो वह बोर होता हुआ बोला: "इत्ता सा पौदा लगाने का इत्ता बला नाम. बली नाइन्तापी है."

चीखते, चिल्लाते धूल उड़ाते हमारा काफ़िला डाम पर पहूंचा. डाम के बगल में बने बच्चा पार्क के बगल से एक रास्ते पर हमें ऊपर चढ़ने को कहा गया. आगे लकड़ी का एक गेट था. गेट पर करीब पांच मनहूस आदमी खड़े थे जो सूरत से ही कामचोर और चपरासी लग रहे थे. उन्होंने डपटकर हमें "एक-एक कर के सालो!" कह कर एक-एक पौधा थमाया. ज़्यादातर पौधों की पत्तियां सूखी हुई थीं और वे भयानक तरीके से मरगिल्ले लग रहे थे.

आधे पौन घन्टे में इन पौधों को जैसे-तैसे ज़मीन में दफ़ना कर हम नीचे पार्क में थे जहां खाकी जोसी, मुर्गादत्त मास्टर और नेस्ती मास्टर उर्फ़ विलायती सांड कहीं से ले आई गई कुर्सियों पर विराजमान हो चुके थे. उनके सामने एक मेज़ धरी हुई थी. और आगे हम बच्चों के बैठने को दरी बिछा दी गई थी. जब सारे बच्चे सैटल हो गए और हल्लागुल्ला कम हुआ तो विलायती सांड खड़ा हुआ और प्रारम्भिक अनुष्ठान के तौर पर उसने पहले ख्वाक्कध्वनि के साथ थूक का गोला अपने पीछे की धरा पर उछाला, एक डकार जैसी ली और हमें सूचना दी - "अब सारे बच्चों को ब्रिच्छारौपड़ कारजक्रम के सटफिकट बांटे जाएंगे."

दो घन्टे तक नाम पुकारे जाते रहे. हर बच्चा मेज़ पर जाता और खाकी जोसी से सटफिकट ग्रहण करता. शुरू के चालीस पचास बच्चों तक तो उत्साह बना रहा उसके बाद बच्चे धीरे धीरे अधमरे होना शुरू हो गए. धूप अलग थी. मेज़ पर लगातार चाय की सप्लाई जारी थी.

जब मेज़ पर धरी सटफिकटों की गड्डी खत्म होने को थी, एक जीप बगल में आ रुकी. जीप से पेटियां निकाली गईं और बच्चों को एक एक कर एक केला और एक समोसा थमाते हुए अपना मुंह काला कर घर फूट लेने का आदेश दिया गया.

लफ़त्तू इस सब से इस कदर चट चुका था कि उसने पार्क से बाहर आते ही समोसा और केला नहर की तरफ़ "हता थाले को!" कहते हुए उछाल दिये.

और दिन होते तो लफ़त्तू ने मेज़ कुर्सी पर बैठी सतत चाय सुड़कती त्रयी की कितनी ही मज़ाकें उड़ा ली होतीं लेकिन वह पिछले कुछ दिनों से किसी दूसरी आकाशगंगा के किसी दूसरे सौरमन्डल के सुदूरतम ग्रह में जा बसा था.

ब्रिच्छारौपड़ कारजक्रम के चौथे दिन असेम्बली में गोबरडाक्टर की उपस्थिति ने हमारी दिलचस्पी को ज़रा सा हवा दिखाई. उस दिन बारहवीं क्लास ने ब्रिच्छारौपड़ करने जाना था. गोबरडाक्टर ने भी पेड़, पानी, धरती वगैरह के बारे में अपना ज्ञान बघारते हुए ब्रिच्छारौपड़ कारजक्रम की महत्ता को रेखांकित किया. नकली तालियों के बाद प्रिंसीपल साहब ने बच्चों को सूचित किया कि गोबरडाक्टर का स्थानान्तरड़ हो गया है और यह कि सारा शहर उनकी याद में आने वाले कई सालों तक रोता रहेगा. पंडित रामलायक 'निर्जन' ने अपनी रची एक गीत-श्रॄंखला सुनाई जिसका आशय यह निकलता था कि चांद सूरज तो तब भी रोज़ आते रहेंगे लेकिन रामनगर की सड़कें गोबरडाक्टर के बिना कब्रिस्तान में तब्दील जाएंगी क्योंकि वे अब कभी यहां नहीं आएंगे.

रामलायक 'निर्जन' ने पहले से ही मनहूस इस असेम्बली को मनहूसतर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.

छुट्टी जल्दी घोषित कर दी गई. मैंने लफ़त्तू से बमपकौड़ा खाने चलने को कहा तो वह मान गया. मेरे पास थोड़े पैसे थे. बमपकौड़ा खा कर हम मन्थर गति से घर की तरफ़ जा रहे थे जब सामने से दौड़ता हुआ लालसिंह हम तक पहुंचा.

"तुम साले मौज काट रहे हो वहां तुम्हारे माल हल्द्वानी जा रहे हैं. एक बार देख तो लो हरामियो उन को!"

अजीब सी नासमझ बदहवासी में हम भागते हुए पसू अस्पताल के गेट पर पहुंचे. ट्रक में सामान लादा जा चुका था और गोबरडाक्टर की गाड़ी की गतिमान झलक भर 'असफाक डेरी केन्द्र और सेन्टर' के मोड़ पर नज़र आई.

हम दोनों वहीं बैठ गए. लफ़त्तू का चेहरा सफ़ेद पड़ा हुआ था और ऐसा लग रहा था कि वह अब रोया तब रोया. मैं तो नकली आसिक था सो मुझे कुच्चू गमलू के चले जाने का ऐसा कोई अफ़सोस नहीं हो रहा था. मुझे लफ़त्तू की चिन्ता हुई.

घरघर करता ट्रक जब चल दिया तो हम हारे जुआरियों की तरह पसू अस्पताल के अहाते में प्रविष्ट हुए. वहां श्मशान जैसी मुर्दनी छाई हुई थी. गोबरडाक्टर के घर के अन्दर कोई झाड़ू कर रहा था. अगले डाक्टर के रहने के लिए घर तैयार किये जाने की तैयारी शुरू हो चुकी थी.

घर के बाहर पुरानी पेटियां, एकाध दरियां और कूड़ा कचरा बिखरा था. लफ़त्तू ने अचानक कुछ देखा और भागकर कूड़े से उसने अपना रत्तीपइयां बाहर निकाला. ये वही रत्तीपइयां था जिसे उसने उस दिन कार की सवारी खाने के बाद "हाउ क्यूट! हाउ क्यूट!" कहती हमारी एक स्कर्टधारिणी भाबी पर न्यौछावर कर दिया था.

"हता थाले को! हता थाले को! ... हता! " कहते आवेग में लफ़त्तू ने रत्तीपइयां के तार को बुरी तरह टेढ़ामेढ़ा बना दिया. रत्तीपइयां को लेकर वह नहर की दिशा में भागा. मैंने उसका अनुसरण किया. वह मेरे पहुंचने से पहले ही रत्तीपइयां को नहर के हवाले कर चुका था. उसने एक रुंआसी निगाह मुझ पर डाली और भागता हुआ भवानीगंज की तरफ़ निकल पड़ा.

अगले दिन इतवार था. हमारा दिगम्बरदल तैराकी कार्यक्रम के उपरान्त कायपद्दा भी खेल चुका था. यानी घर जाकर कुछ खाने का समय हो गया था. लफ़त्तू पानी के भीतर नंगा निश्चेष्ट लेटा था. सब जा चुके तो मैंने उस से घर चलने को कहा.

"तू दा याल. मैं कुत थोत रा ऊं." कह कर उसने तेज़-तेज़ तैरना शुरू कर दिया जब तक कि वह मेरी निगाहों से ओझल न हो गया.

Wednesday, July 29, 2009

ज्याउल, उरस की मूफल्ली, मोर्रम और ब्रिच्छारौपड़ - ५

ज्याउल के घर का खाना याद आते ही मुंह में पानी भर आता. एक बार मैंने ज्याउल से ऐसा कहा तो वह मेरे और लफ़त्तू के लिए अलग से प्लास्टिक के डब्बे में मटर की तहरी बनवा कर लाया और अपनी अम्मी का सन्देशा भी कि हम जब चाहें तहरी खाने उनके घर आ सकते हैं. बल्कि इसी इतवार को क्यूं नहीं आ जाते.

इन्टरवल में जब सारे बच्चे खेलमैदान की तरफ़ भाग चले हम तीनों ने क्लासरूम में रहकर ही अपना गुप्त लंच कार्यक्रम आयोजित किया. छोटा सा प्लास्टिक का डब्बा और खाने वाले दो भुखाने सूरमा. न पेट भरा न मन. पर लुफ़्त आ गई.

अगले दो इतवार हमने ज्याउल के घर इस लुफ़्त का क्लाइमेक्स भी महसूस किया. इस में बाधा बन कर आईं कुछ छुट्टियां. ज्याउल अपने नानाजान के घर फ़रुक्खाबाद चला गया था इन छुट्टियों में.

हमारा दिगम्बर तैराकी और पॉलियेश्टराम्बर कायपद्दा कार्यक्रम अपने उरूज पर आ जाता था इस तरह की छुट्टियों में. एक बार थक कर चूर हम लोग घरों को लौट रहे थे तो ऐसे ही बातों बातों में इस बात पर बहस चल निकली कि छुट्टियां किस बात की चल रही हैं. गोलू ने अपने पापा के हवाले से बतलाया कि कुछ त्यौहार एक साथ पड़ गए और बीच में इतवार भी. एक दिन बाद मोर्रम था. मोर्रम माने कोई मुसलमान त्यौहार. पिछली बार मोर्रम के टाइम हम लोग रानीखेत किसी शादी में गए हुए थे. उस मोर्रम के ताजियों और ढोल-दमामों वगैरह की बाबत लफ़त्तू और बन्टू ने मुझे इतने किस्से सुनाए थे कि इस त्यौहार का नाम आने से मुझे कुछ उत्साह महसूस हुआ.

इधर लफ़त्तू के व्यवहार में धीरे धीरे कुछ परिवर्तन आने शुरू हो गए थे. उसने कायपद्दा खेलना बन्द कर दिया था. हम आम की डालियों पर चढ़े रहते और वह पानी में डूबा अधडूबा रहता. बहुत बोलता भी नहीं था. न शामों को क्रिकेट खेलने आता. हां हर शाम लालसिंह की दुकान पर हम ज़रूर जाते थे. मेरी निगाहें पसू अस्पताल के गेट से लगी रहा करतीं पर लफ़त्तू किसी दूसरे ग्रह पर पहुंच चुका था. यदा कदा वह कोई अश्लील गाना सुनाता या किसी पिक्चर के डायलाग ताकि लालसिंह उसकी उदासी को ताड़ न ले.

मुझे उस्ताद का यह रूप कतई पसन्द नहीं आ रहा था. लेकिन मैं असहाय था. मेरी इतनी ताब न थी कि उस के लिए कुछ भी कर सकूं. मैं हिम्मत कर के गमलू कुच्चू का नाम ले लेता तो वह "हता थाले को याल" कहता सड़क पर पड़े पत्थरों को लतियाता दूर तक ठेलता ले जाता. कभी कभी वह बिला वजह अपने आप से "हत थाले की" कहता.

लेकिन मोर्रम की सुबह वह "बी ... यो ... ओ ... ओ ... ई. .." करता सड़क पर से मुझे बुला रहा था. मैंने झटपट चप्पल पहनी और अपने शान्तिवन अर्थात बौने के ठेले की तरफ़ चल पड़े.

"बेते पितले छाल इत्ते बले बले धोल बज रये थे मोर्रम पे कि कान फूत गए ते. औल इते बले ऊंते उंते तादिये ... आप छमल्लेवें ... तेले घल की थत तक. बन्तू ते पूत लेना. मैं तो तुदे ये कैने आया ऊं कि तू दलना मत धोल छाले ऐते बदते ऐं ... "

हमने पेटों में प्रिय व्यंजन पिरोया और बहुत दिनों बाद फ़र्श से चिपक कर आधे घन्टे कोई पिक्चर देखी.

मोर्रम के जुलूस की आवाज़ें शाम चार बजे से पाकिस्तान के किसी सुदूर हिस्से से सुनाई देना शुरू हो गई थीं. समय बीतते बीतते ढोलों की थापें तेज़ होती गईं. करीब साढ़े छः बजे जुलूस पाकिस्तान सीमा पर था. हमारी छत पर दर्शकों का मजमा लगा हुआ था.

बहुत दूर तक लोगों का हुजूम नज़र आ रहा था. जुलूस में बीच बीच में बड़े बड़े शानदार ताजिये नज़र आ रहे थे. बेहतरीन कलाकारी के नमूने ये चमचमाते ताजिये मैं पहली बार देख रहा था. जुलूस में सबसे आगे बैन्डवाली एक गाड़ी पर दो बड़े बड़े ढोल बजाए जा रहे थे. गाड़ी के आगे अपनी छातियां पीटते करीब सौ बच्चे थे. वे बार बार गाड़ी के पास जाते है वहां से उन्हें कुछ मिलता जिसे अपने मुंहों में ठूंसकर वे सीना फ़ोड़ने में जुट जाते. पीछे पता नहीं कितने सारे तो ताजिये थे और कितने लोग. बैन्डगाड़ी हमारे घर से दसेक मीटर दूर रह गई होगी जब ढोल बजाने वालों के भीतर जैसे कोई देवता घुस गया. खुले सीनों वाले चार-चार हट्टे कट्टे आदमी ढोल पीट रहे थे और सचमुच घर की दीवारों की एक एक ईंट बजती महसूस हो रही थी. ताजिये वाकई बहुत ऊंचे थे और लगता था कि ऊपर टंगे बिजली के तारों में लिपझ जाएंगे.

ढोलों की आवाज़ बिल्कुल कानफोड़ू थी. ऐसी उत्तेजना मुझे कभी महसूस नहीं हुई थी. बैन्डगाड़ी के पीछे बड़ी उम्र के पगलाए से लड़कों-आदमियों को अपने सीनों और पीठों पर रस्सियां-सोंटियां बरसाते हुए "या अली या अली" कहते देखना अजब सनसनी भर देने वाला था. इस सारे कोलाहल को देखते कुछ भी सुनाई दे रहा था. मुझ से सट कर खड़े बन्टू की लगातार कमेन्ट्री चालू थी. अलबत्ता लफ़त्तू ने जब कान से अपना मुंह सटाकर "तल बेते" कहा तो उस पागलपन के बीच भी मैंने उसकी आवाज़ सुन ली. उसने आंख मार कर मुझे अपने पीछे आने को कहा.

(जारी - कल अगली लास्ट किस्त. हर हाल में. अभी कहीं जाना पड़ रहा है.)

Tuesday, July 28, 2009

ज्याउल, उरस की मूफल्ली, मोर्रम और ब्रिच्छारौपड़ - ४

हालांकि ज्याउल के घर हम उसके बड्डे पर जा चुके थे, यह बात मेरे परिवार में किसी को मालूम न थी. रात को खाना खाते वक्त जब मैंने अगले दिन ज्याउल के घर जाने की अनुमति मांगी तो उसे मिल ही जाना था क्योंकि पिताजी पहले ही मुझे उसके साथ दोस्ती बढ़ाने को कह चुके थे. मां ने थोड़ा सा मूंह बनाया और बोली : "यहीं क्यूं नहीं बुला लेता है उस को? कोई जरूरी है उस के यहां जाना?"

"अरे जाने दो यार बच्चों को ऐसे ही दुनियादारी पता चलती है" कह कर फ़ैसला मेरे पक्ष में सुना दिया गया.

अगले दिन मैं तैयार हो कर ज्याउल के घर जाने ही को था कि मां ने कहा: "रुक एक मिनट को."

वह भाग कर मन्दिर वाले कोने में गई और वहां कुछ देर रूं-रूं जैसा करती रही. वापस आ कर उसने मेरे माथे पर भभूत का टीका लगाया और काला धागा मेरी गरदन के गिर्द बांध दिया: "वहां खाना हाना मत कुछ. और डर लगेगा तो हनुमान चालीसा का जाप कर लेना. एक बजे तेरे बाबू आ के ले जाएंगे तुझे."

पूर्वनिश्चित कार्यक्रमानुसार लफ़त्तू मुझे बस अड्डे के पीछे खड़ा मिला. मेरे माथे पर भभूत लगी देख कर बोला: "अबी तू बत्ता ऐ बेते. थोता ता बत्ता." उसकी मंशा मुझे अपमानित करने की नहीं थी पर मुझे अपमानित महसूस हुआ. मैंने झटके में माथा रूमाल से साफ़ किया और अपनी मां के उक्त कृत्य को डिफ़ेन्ड करते हुए कहा कि मां ने अपना काम किया मैंने अपना.

उसने मेरा हाथ थाम के कहा: "बुला नईं मानते याल!"

हिमालय टाकीज़ पार करते न करते उस पर पुरानी रौ छा गई. उसने दो उंगलियां मुंह में घुसेड़कर सीटी बजाना भी सीख लिया था. सत्तार मैकेनिक की दुकान के बाहर उसने इस कला का प्रदर्शन किया और जल्द ही "...उहूं ... उहूं ...दान्त तत ... दान्त तत ..." की मटकदार चाल में पहुंच गया. मैं हैरान हो जाता था उसे देख कर. अभी अभी इसके पापा ने इसकी चमड़ी उधेड़ी है मगर ये किसी से डरता ही नहीं. उसके मुझ पर ऐसे ऐसे अहसानात थे मगर उसने एक बार भी किसी का हवाला देकर मेरी बेज्जती खराब नहीं की थी जैसा बन्टू हर दूसरी बार किया करता था.

ज्याउल के घर पर हमारा इन्तज़ार हो रहा था. आसमानी लिबास ने आज गुलाबी रंग चढ़ा लिया था. उसने हमें दूर से देख लिया और हमें उसका "ज़िया भाई! ज़िया भाई!" कहते हुए भीतर जाते बोलना सुनाई दे गया. ज्याउल की अम्मी ने हमारे सिरों पर हाथ फिराये और अल्ला-अल्ला चाबी-ताला जैसा कुछ कहा. गुलाबी लिबास ने हमें "आदाब भाईजान" कहा और अन्दर कहीं चला गया. ज्याउल हमें अपने कमरे में ले जाते हुए बोला "ये हमारी बाजी हैं"

'बाजी' शब्द का मतलब पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी - बस मन में दस-बीस सवाल भर उमड़े. ज्याउल के पास बहुत सारी किताबें थीं. मैंने इतनी किताबें दुकान को छोड़कर कभी-कहीं नहीं देखी थीं - किताबें कुच्चू गमलू के पास भी थीं पर ज्याउल का कलेक्शन अविश्वसनीय था. ज्याउल ने हमें स्पैलिंग वाला खेल खेलने का प्रस्ताव दिया. लफ़त्तू ने एक लोटपोट निकाल ली थी और वह किसी भी तरह का खेल खेलने के मूड में न था. "तुम दोनो खेलो याल. मुदे नईं आती इंग्लित फ़िंग्लित! ..."

हमारा स्क्रैबल करीब एक घन्टा चला. इस दरम्यान शरबत, सिंवई, समोसे इत्यादि का भोग लग चुका था. हमारे स्क्रैबल को गुलाबी पोशाक बाजी के रूप में एक उम्दा दर्शक मिल गया था. बाजी शायद ज्याउल से एकाध साल बड़ी थीं. हर नए शब्द पर "बहुत अच्छे भाईजान!" कहना उनका ताज़ा तकिया कलाम था शायद.

लोटपोट में नकली व्यस्त लफ़त्तू ने अपना चेहरा इस कदर छुपाया हुआ था कि अगर आधे घन्टे वहां रहने पर बाजी "आप नहीं खेलेंगे?" नहीं पूछती तो हम उसे भूल ही जाते. "लफ़त्तू को खेल पसन्द नहीं हैं. उसे कॉमिक अच्छे लगते हैं." मैंने लफ़त्तू का बचाव करते हुए कहा. "कोई बात नहीं, कोई बात नहीं" कहकर उन्होंने हमारे उत्साहवर्धन में जुट जाना बेहतर समझा.

स्क्रैबल के बाद हम लोग बाहर बरामदे में आ गए. सामने नहर बहती थी और दूर टुन्नाकर्मस्थली यानी कोसी डाम की झलक दिख रही थी. "आओ बच्चो! खाना लग गया!" अन्दर से ज्याउल की मम्मी की आवाज़ आई तो मेरी फूंक सरक गई.

सिंवई, समोसे, शरबत तक तो ठीक था पर पूरा खाना. अगर घर में मां को पता लग गया तो? और मान लिया खाने को गाय-हाय हुई तब? ... मैं कोई बहाना सोच ही रहा था कि लफ़त्तू ने मेरी बांह थामी और आश्वस्त करते हुए अपने साथ भीतर डाइनिंग टेबल पर ले चला. बढ़िया साफ़ सफ़ेद तश्तरियां करीने से लगी हुई थीं. ज्याउल की अम्मी ने मटर की खुशबूदार तहरी और दही के डोंगे खोले और बोली "बच्चों के हिसाब से मिर्च बिल्कुल नहीं डाली है बेटे. लो."

जीवन में मैंने तब तक नहीं जाना था कि मटर की तहरी जैसी सादा चीज़ इस कदर स्वादिष्ट भी हो सकती है. उसे सूतते हुए न तो मां की बातें याद आईं न तहमत से ढंके मीट से लदे हाथठेले की. खाना खा चुकने के बाद मुरादाबादी घेवर मिला बतौर स्वीटडिश.

हमारे जाने का समय होने को था और मैं पिताजी का इन्तज़ार कर रहा था जब ज्याउल की अम्मी ने बताया कि ऑफ़िस से चपरासी आकर बता गया था कि पिताजी व्यस्त होने के कारण नहीं आ सकेंगे. मुझे थोड़ा तसल्ली हुई कि वापसी में लफ़त्तू और मैं कुछ देर और मौज कर सकेंगे.

ज्याउल, उसकी अम्मी और बाजी हमें कालोनी के गेट तक छोड़ने आए. "आते रहना बेटा! वरना ज़िया तो अकेले में हर बखत किताबों में ही मुंह डाले रहते हैं. घर पर सब को हमारा सलाम कहना."

मुसलमान घर में लंच कर चुकने जैसा अविश्वसनीय कारनामा कर चुकने का सदमा एकाध मिनट रहा जब लफ़त्तू बोला: "द्‍याउल कित्ता अत्त ऐ ना. और उतकी मम्मी बी." वह विचारमग्न होने को था जब मैंने मुसलमान घर में लंच करने के बाबत उसके विचार पूछे. "अले हता याल! इत्ते प्याल छे तो मेली मम्मी ने मुदे कबी नईं खिलाया. कुत नईं होता मुछलमान हुछलमान! बत घल पे मत कैना. द्‍याउल ते मैं कै दूंगा कि तेले घल पे नईं कएगा."

घर पर छोटी बहनों के सिवा कोई न था. वे अपनी गुड़ियों के बचकाने खेलों में मुब्तिला थीं. मैंने इत्मीनान की सांस ली कि तुरन्त खाना खाने को कोई नहीं कहेगा. देह में गरदन गरदन तलक स्वाद अटा हुआ था.

एक शाम हम क्रिकेट खेल रहे थे. लफ़त्तू हरिया हकले की छत पर पहुंचा दी गई गेंद लाने गया. इस बार गेंद असल में दूधिये वाली गली में चली गई थी. इन्हीं दिनों फ़ील्डिंग में यह नियम लागू किया गया था कि सड़क या दूधिये वाली गली में गेंद पहुंचाने वाले को ही उसे लाना होगा. लफ़त्तू ने अपनी स्वयंसेवी फ़ील्डिंग संस्था बन्द कर दी थी.

बन्टू नीचे गया तो मैं और लफ़त्तू छत की मुंडेर पर अपनी मुंडियां टिकाए नीचे झांक कर देखने लगे. बन्टू को गेंद नज़र नहीं आ रही थी और वह इधर उधर खोज रहा था. अचानक हमारे ऐन नीचे हरिया के घर का दरवाज़ा खुला और हमारी उम्मीदों को ग्रहण लगाता कुच्चू-गमलू का खिलखिल करते बाहर आना घटित हुआ. उनके पीछे पीछे हरिया निकला और उसके बाद हरिया की बहन और उसकी मां.

"हो गई बेते तेली भाबी की थादी फ़ित्त हलिया के तात. मैं कै ला था ना थाले ने फंता लिया ऐ उतको."

जब तक बन्टू गेंद लाता, हम दोनों बौने के ठेले की तरफ़ निकल चुके थे. इधर मेरे मामा आए थे. और जाने से पहले सब से छिपा के मुझे पांच का नोट दे गए थे सो पैसे की इफ़रात थी. बमपकौड़ा पेट में जाते ही हमारे दिमाग थोड़ा स्थिर हो जाया करते और तब ऐसी संकटपूर्ण वेलाओं में हम किसी भी विषय पर लॉजिकली सोच पाते थे.

"तल. लालछिंग के पात तलते ऐं."

लालसिंह किस्मत से दुकान पर अकेला बैठा माचिस की तीली की मदद से कनगू निकाल रहा था. हमें देखा तो उसका चेहरा अचानक खिल गया. "इत्ते टैम से कां थे बे हरामियो."

दूध-बिस्कुट की मौज काटी गई. लालसिंह ने तड़ से हमारे सामने सवाल उछाला: "गोबरडाक्टर तो जा रहा हल्द्वानी. ट्रान्सफ़र हो गया बता रहे थे. अब तेरा क्या होगा कालिया?" उसने प्यार से लफ़त्तू की ठोड़ी सहलाई.

"होना क्या ऐ. आपका नमक खाया है छलकाल" अप्रत्याशित रूप से कालिया बन गया लफ़त्तू. फ़िर जल्दी से पाला चेन्ज कर के गब्बर बन कर बोला: "ले बेते अब गोली खा!"

अपने नन्हे हाथों को जोड़कर उसने पिस्तौल की सूरत दी और अपनी ही कनपटी पर लगा कर कहा: "धिचक्याऊं! धिचक्याऊं! धिचक्याऊं!" और मर गया. लालसिंह हंसते हंसते पगला गया था. "सालो जल्दी जल्दी आया करो यहां. इत्ती बोरियत होती है साली."

लालसिंह लफ़त्तू की ऐक्टिंग से इम्प्रेस्ड था पर मुझे पता था यह लफ़त्तू की डिफ़ेन्स मैकेनिज़्म काम कर रही थी अपने ऊपर आए ऐसे व्यक्तिगत विषाद के अतिरेक से लड़ने को. लफ़त्तू तो तब भी नहीं रोया था जब उसके पापा उसे सड़क पर नंगा कर के जल्लादों की तरह थुर रहे थे.

नहीं. लफ़त्तू तब भी नहीं रोया.

न तब. न बाद में.

(जारी - कल अगली लास्ट किस्त)

पिछली कड़ियां:

पहला हिस्सा

दूसरा हिस्सा

तीसरा हिस्सा

ज्याउल, उरस की मूफल्ली, मोर्रम और ब्रिच्छारौपड़ - ३

डबल डेकर डब्बे को छुपाना अगले कई दिन का सबसे मुश्किल काम रहा. सबसे पहली बात तो यह थी कि वह डब्बा मुझे बहुत पसन्द था पर हर साल लिया जाने वाला जौमेट्री बॉक्स मेरे लिए लच्छमी पुस्तक भण्डार से कुछ माह पहले लिया जा चुका था और सलामत था. एक बार मैंने उस डबल डेकर डब्बे का घर पर ज़िक्र क्या किया सारे लोग झिड़कियों का झाड़ू ले कर मुझ पर पिल पड़े थे. लफ़त्तू जानता था कि मुझे वह डब्बा अच्छा लगता है. उसे यह बात याद रही और जेब में रकम आते ही वह मेरे वास्ते उसे खरीद लाया. यह तथ्य मेरे लिए गौरवान्वित करने वाला होने के साथ साथ इमोशनल बना देने वाला भी था. अलबत्ता अगर लफ़त्तू के घरवालों को किसी भी सूत्र से पता लग जाता कि उसने अपनी बहन की घड़ी सत्तार मैकेनिक को बेच दी है तो उसका क्या हाल होना था यह सोच सोच कर मैं थर्रा जाया करता.

घर की दुछत्ती में एक कबाड़ बक्सा धरा रहता था जिसके भीतर पुरानी फ़ाइलें, टूटे हत्थों वाली एक कढ़ाई, कुछेक पोटलियां और बिना ट्यूब वाला साइकिल का पुराना पम्प जैसी अंडबंड चीज़ें रखी रहती थीं. दुछत्ती में जाने के लिए खास मेहनत नही करती पड़ती थी. इस दुछत्ती का दरवाज़ा छत तक जाने वाली सीढ़ियों से लगा हुआ था . क्रिकेट खेलने जाते वक्त मैंने डब्बे को उसी बक्से के एक कोने में पोटलियों के नीचे छिपा दिया. हर सुबह शाम एक बार अपने ख़ज़ाने की सलामती चैक कर लेने पर ही इत्मीनान मिलता.

कुछ दिन बाद वह स्थान भी असुरक्षित लगने लगा तो मैंने उसे ढाबू की छत पर बने आले के नीचे धरी ईंट-रेत के पीछे वाली अपनी प्राइवेट सेफ़ को ही सबसे मुफ़ीद पाया जहां पिछले पांच छः माह से कर्नल रंजीत वाली वह फटी किताब अब तक सुरक्षित धरी हुई थी जिसे परजोगसाला से लफ़त्तू ने मेरे लिए चाऊ किया था.

ढाबू की छत का नामकरण बन्टू, उसकी बहन और मैंने किया था. ढाबू का मकान असल में एक बूढ़े आदमी की सम्पत्ति था. चूंकि मकान अक्सर खाली रहा करता, उसकी छत पर हम अपना एकाधिकार समझा करते थे. एक बार हम तीनों वहां धरे रेत के टीले पर लकड़ियां खुभा कर किला बनाने का खेल खेल रहे थे जब बुड्ढा पता नहीं कहां से आ गया. उसने हमें बहुत धमकाया. बन्टू ने अपने पापा से शिकायत की कि बुड्ढा आ कर हमें डांट गया. बन्टू के पापा ने उल्टे बन्टू को थप्पड़ जड़ा और कहा कि खबरदार किसी बुज़ुर्ग को बुड्ढा कहा तो. छत पर वापस आकर गुस्साप्रेरित रचनात्मक अतिरेक के किसी एक क्षण हम तीनों ने फ़ैसला किया कि बाकी बुड्ढों से हमें कोई आपत्ति नहीं है पर इस वाले से है और हम उसे अपने हिसाब से बुड्ढा कहेंगे. इस तरह बूढा का उल्टा बना ढाबू. आस पड़ोस में आज भी रामनगर में वह छत ढाबू की छत के नाम से विख्यात है.

घर से घड़ी गायब हो चुकने का समाचार मिलते ही लफ़त्तू के पापा उस की तीन चार दफ़ा भीषण धुनाई कर चुके थे. लफ़त्तू को अपने घर में ही चोट्टा या हद से हद बौड़म कह कर सम्बोधित किये जाने का रिवाज़ था. इतनी मारें खा चुकने के बाद लफ़त्तू अब ढीठ और हद दर्ज़े का बहादुर बन चुका था. वह मार खाता रहा और चूं तक न बोला. तीसरी बार तो उसे इतना ज़्यादा मारा गया कि पड़ोस में रहने वाली क्रूर सरदारनी को उसे बचाकर अपने घर ले जाना पड़ा.

लफ़त्तू का बड़ा भाई हाकी वगैरह ले कर मैकेनिक गली में "एक एक को देख लूंगा सालो" कह कर एक चक्कर काट आया पर न सत्तार कुछ बोला न कोई और मैकेनिक. जाहिर तौर पर सत्तार के हाथ बढ़िया सौदा लगा था और वह अगले बिज़नेस की राह देख रहा था.

मैं दिन में दो बार ढाबू की छत पर जाता और डब्बे को छू कर देख लेता. एक नज़र कर्नल रंजीत की किताब पर डालता और किसी के आ जाने से पहले पहले वहां से हट जाता. पर कोई चोर निगाह मुझे लगातार देखे जाती थी. एक दिन वहां से डब्बा गायब था. किताब की चिन्दियां की जा चुकी थीं. तब तक के जीवन का यह सबसे बड़ा आघात था. दुर्घटना घटते ही मेरा शक सत्तू पर गया क्योंकि उसकी छत ढाबू और हरिया हकले की छतों के एक तरह से बीच में पड़ती थी. लेकिन क्या तो किसी से पूछा जाता और किस आधार पर. ज़रा सी लापरवाही से लफ़त्तू की जान को ख़तरा था. और मेरी जो सुताई होती सो अलग.

तिमाही का रिजल्ट आ चुका था और पहली बार मैं क्लास में दूसरे नम्बर पर आया. ज्याउल ने टॉप किया था. घर पर हल्का फ़ुल्का मातम मनाया जा रहा था हालांकि मुझे पता था कि ज़रा सी मेहनत से मैं भी टॉप कर सकता था. पर ज्याउल के फ़र्स्ट आने का मुझे कोई दुख नहीं था. दुख तो तब होता जब प्याली मात्तर का नाती गियानेस अग्गरवाल संस्कृत और हिन्दी में बेमान्टी से सौ में सौ दिए जाने पर हमसे आगे निकल जाता.

घर पर पहली दफ़ा ज्याउल का पॉजीटिव ज़िक्र हुआ और मेरे पिताजी ने उस से दोस्ती करने को कहा. "रहमान साब भी इतने बढ़िया पढ़े लिखे आदमी हैं बेटा. पढ़े लिखों की संगत करोगे तो कभी पछताओगे नहीं." गड़त में सौ में सौ लाने के ऐवज़ में मुझ से कोई भी चीज़ मांगने को कहा गया तो मैंने झट से उसी डबल डेकर की मांग की. भाई के साथ मुझे भेजा गया और डबल डेकर के अलावा कोई किताब लेने को भी कह दिया गया. यूं पहली बार राजन इकबाल नाम के दो जासूसों से अन्तरंग परिचय की राह बनी. जब-जब कर्नल रंजीत उस फटी किताब के पन्नों में अकेला किसी होटल में किसी महिला के साथ होता था तो भीगी बिल्ली बन जाता था और अजीब अबूझ शब्दो में उनके प्राइवेट कारनामों का ज़िक्र होता. राजन इकबाल जो कुछ करते थे वह हम भी कर सकते थे. बल्कि अगर उन्हें टुन्ना झर्री का नाम मालूम होता तो वे शायद बेताबी से उसका शिष्यत्व ग्रहण कर रामनगर आ बसते.

तिमाही की छुट्टियां होने के साथ ही धूल मैदान से बस अड्डे का टैम्प्रेरी विस्थापन हुआ और मुन्ने फ़कीर के सालाना उरस के मौके पर कव्वाली और मेला आयोजन की तैयारी चालू हो गई. उरस के लिए क्या हिन्दू क्या मुसलमान सारे बड़े पुरुष टोलियां बनाकर घर-घर दुकान-दुकान जा कर चन्दा इकट्ठा किया करते थे.

इधर ज्याउल दो दफ़ा मेरे घर आ चुका था. उसकी सलीकेदार भाषा सुनकर मेरी मां हैरत में रह जाती थी. उसे यकीन ही नहीं होता था कि वह मुसलमान है. उसके लिए तो मुसलमान का मतलब शरीफ़ या जब्बार भर होता था. जब वह उनके पैर छूकर गया तो उसने दार्शनिक आवाज़ निकाल कर कहा: "पिछले जन्म में हिन्दू रहा होगा बिचारा!"

पापा से पिटाई खाने के एक हफ़्ते तक लफ़त्तू को कहीं देखा नहीं गया. सारा मोहल्ला उसके पापा की थूथू करता रहा क्योंकि यह तय माना जा रहा था कि लफ़त्तू को गहरी गुम चोटें आई हैं. शुरू के दो-तीन दिन अपने सामने लगा खाना देख कर मेरे गले में जैसे कोई सूखा पत्थर फंस जाता. एक दिन मेरी बहन जो लफ़त्तू की बहन की दोस्त थी, ने घर पर सब को और खासतौर से मुझे सुनाते हुए सूचना दी कि दो तीन दिन में लफ़त्तू बिल्कुल ठीक हो जाएगा. वह खुद अपनी आंखों देख कर आई है.

उरस से पहले दरगाह में जाकर मिन्नत मांगने का रिवाज़ था. उरस के पहले दिन ज्याउल अपनी अम्मी के साथ दरगाह जाने वाला था. मैंने पिछली शाम उस से तकरीबन भर्राए गले से गुज़ारिश की कि मेरी तरफ़ से दुआ मांग ले कि मेरा दोस्त, मेरा उस्ताद लफ़त्तू जल्दी ठीक हो जाए.

उरस की शाम से क्या कव्वालियों का समां बंधा. समझ में न तो बोल आते न संगीत पर अन्दर तक कोई चीज़ प्रवेश कर जाती और मन आह्लाद से लबालब हो जाता. मैं खिड़की पर बैठा सामने शामियाने के भीतर मेले की चहलपहल का जायजा लेता जाता और कव्वाली अपना काम करती रहती.

दूसरे दिन मुझे ज्याउल के साथ उरस के मेले में जाने की इजाज़त मिल गई. अन्दर तमाम बच्चे ही बच्चे थे. वो भी थे जो कुछ माह पहले सब्ज़ी मन्डी में मस्जिद से लगी दीवार से सटाकर लगाई अपनी बच्चा दुकानों पर कटारी-सफ़री बेचते मुझे डराया करते थे. उत्सव के इस माहौल में उनके तेवर भी बदले हुए थे. मेरी चोर निगाहें सकीना को खोजती थीं अलबत्ता अब उस का चेहरा भी मुझे ठीक से याद नहीं रहा था.

"अस्सलाम" "तस्लीम" "भाईयान" वगैरह शब्द बहुतायत में हवा में उड़ रहे थे और ये हिन्दू मुसलमान दोनों मुखारविन्दों से बाहर आ रहे थे. एक कोने पर कव्वाली का पंडाल लगा हुआ था जिस के भीतर फ़िलहाल तम्बू कनात वाले थके मजदूर इत्यादि विभिन्न मुद्राओं में विराजमान थे. बस अड्डे वाले हिस्से पर खाने पीने की चीज़ों के ठेले, दुकानें सजाई गई थीं. जगुवा पौंक और मास्टरपुत्र गोलू भी हमें वहीं मिल गए. कुछ देर में बन्टू और सत्तू भी. मौके का दस्तूर था कि घर से मिले पैसों को तुरन्त तबाह कर दिया जाए. बमपकौड़े वाला बौना हमें देख बहुत उत्साहित हुआ. और बिना पूछे पत्तल बनाने लगा. पत्तल बनाते बनाते उसने बिना मेरी तरफ़ देखे पूछा: "बाबूजी नहीं आ रहे आजकल. लगता है बाहर गए हैं. आएंगे तो कहियेगा नया खेल लगा है अबकी धरमेन्दर का!" मैंने खुद को शर्म, दुःख और असहायता में डूबा पाया और मेरी आंखें ज़मीन से लग गईं.

ज्याउल ने पत्तल बौने से लेकर मेरी तरफ़ बढ़ाया ही था कि "धिचक्याऊं! धिचक्याऊं! धिचक्याऊं!" की तोतली आवाज़ मेरे कानों में पड़ी और लफ़त्तू धीमे धीमे दौड़ता सा हमारे ऐन बगल में आ खड़ा हुआ. "थाले अकेले अकेले खा लये हो हलामियो!"

मैं उसके गले लग गया पर उस ने मुझे आराम से दूर किया: "थूने में अबी दलद होता है याल अतोक!"

इस तरक का हर माहौल लफ़त्तू के लिए ही रचा गया लगता था. सदियों से. सारी मनहूसियत एक सेकेन्ड में गायब हो गई. बौने ने बाबूजी का आत्मीय इस्तकबाल किया. पहली बार उसके बमपकौड़े के पैसे मैंने दिए. हमारा पिद्दी टोला अब अपने मरियल सीनों को भरसक बाहर निकालने की कोशिश करता तनिक घिसटते चल रहे लफ़त्तू का अनुसरण करते दुकानों के मुआयने पर निकल चला.

एक कोने पर कुछ छोटे बच्चों की भीड़ लगी हुई देखी तो हम इन्स्टिंक्टिवली वहीं चल दिए. एक कोने में पट्टे का पाजामा और फ़टी बंडी पहने एक बारह पन्द्रह साल का लड़का रुंआसा खड़ा था. वह सूरत से ही किसी पहाड़ी गांव से आया लगता था. लफ़त्तू ने हमें पांचेक मीटर दूर रुक जाने का आदेश दिया.

बच्चे उस लड़के से पूछ रहे थे: "क्या बेच रिया भैये?"

"का ना मूफल्ली है. कितनी बार पूछोगे?" उसका धैर्य टूटता सा दिख रहा था और वह बस रोने को ही था.

"अबे मूफल्ली नईं कैते मूमफ़ली कैते हैं!" कहती हुई बच्चा पार्टी हंस कर दोहरी हो गई.

"बता ना क्या भाव लगा रिया?"

"भैया बार आने की पाव भर मूफल्ली."

"मूफल्ली ..." उसी की टोन में इस शब्द का उच्चारण करते बच्चों पर पुनः हंसी का दौरा पड़ा.

लफ़त्तू मामला समझ गया. हमें साथ आने को कह कर वह वहां पहुंचा और बच्चों को हड़काते हुए बोला: "थालो एक एक की हद्दी तोल दूंगा. फूतो थालो! फूतो!" एक बच्चे की पिछाड़ी पर उसकी लात भी पड़ी.

अब मूफल्ली विक्रेता छोकरा और हमारा पिद्दीदल आमने सामने थे.

"कां थे आया ऐ?" अपने को बॉस दिखाने की मुद्रा में लफ़त्तू ने पूछा.

"भतरौंजखान से."

"ये प्लेन्त ऐ बेते. यां नईं तलती मुपल्ली. मूम्पली नईं कै तकता?" उसके बोरे से दो-चार मूंगफलियां साधिकार निकालते उसने हिकारत से कहा.

"मुम्फल्ली."

"हां" कुछ सोच कर लफ़त्तू ने कहा "ये तलेगा." फिर पूछा "यां अकेला आया ऐ?"

"नईं बाबू साथ आए रहे मुझ को यहां बैठा गए कि अभी आ रहा हूं कह के. पता नईं कां गए. लौंडों ने इतना दिक कर दिया. मैं जाता हूं अब." वह अपना बोरा उठाने को हुआ तो लफ़त्तू ने उसे डपटा "थाला बला आया बिदनत कलने वाला. गब्बल का नाम नईं छुना तैने. जो दल ग्या बेते वो मल ग्या. अब बैत के बेत मूमफली. कोई तंग नईं कलेगा. गब्बल की गालन्ती ऐ."

लफ़त्तू ने मुझ से चवन्नी मांगी और उस से मूंगफली खरीदी. उसकी तरफ़ आंख मारी और कहा "दलना मती."

मेले में घूमते काफ़ी देर हुई और हम मूंगफली टूंगते लगातार आपस में मूफल्ली मूफल्ली कर हंसते रहे और प्रफुल्लित हुआ किए.

घर लौटते लफ़त्तू से मैंने दबी ज़ुबान में पूछा: "बहुत मारा ना पापा ने तुझे."

"अले हो ग्या याल. गब्बल को कौन माल छकता है." उसकी आवाज़ में पुराना आत्मविश्वास तनिक कम था. उसने मुझ से भी दबी ज़ुबान में मुझ से पूछा: "अपनी भाबी को देका तूने याल? कोई कै रा था गोबलदाक्तर का त्लांतपल हो ग्या."

मेरी ज़ुबान पर गोंद चिपका हुआ था.

पहली बार उदास आवाज़ में वह बोला: "याल कुत्तू गमलू लामनगर छे तले दाएंगे क्या?"

(जारी)

पिछली कड़ियां:

पहला हिस्सा

दूसरा हिस्सा

ज्याउल, उरस की मूफल्ली, मोर्रम और ब्रिच्छारौपड़ - २

बिला नागा हर सुबह पाकिस्तान की तरफ़ से दो हाथठेलों में लाल दाग लगी चारखाने की तहमतों से ढंका ढुलमुल ढुलमुल गाय-भैंस का मीट पता नहीं कहां ले जाया जाता था. पाकिस्तान की हमारी हद शरीफ़ सब्ज़ीवाले की दुकान से सटी जब्बार कबाड़ी की गुमटी थी. उस से आगे एक अनजाना अनदेखा रहस्यलोक था जहां किसी फ़कीर की दरगाह थी और उसके आगे कब्रिस्तान, मिट्टी के ढूह, जंगल और उसके ऊपर एक आसमान जो रातों को सियारों की हुवांहुवां से अट जाया करता.

मत्यु और अन्तिम संस्कार जाहिर है हमें सबसे ज़्यादा फ़ैसिनेट करते थे और इस बाबत अक्सर ही हम तमाम कयासों से भरी बहसों का आयोजन किया करते. लफ़त्तू जो किसी ज़माने में मुछलियों से दूर रहने की चेतावनियां दिया करता था, इधर लगातार उनके प्रति सहिष्णु और सदाशय होता जा रहा था. इस परिवर्तन के पीछे हो सकता है ज्याउल का साथ रहा हो या स्कूल के मात्तरों का मैमूदों के प्रति सौतेला व्यवहार. जो भी हो.

सत्तू और जगुवा ने एक दफ़ा छिप कर पाकिस्तानी अन्तिम संस्कार के प्रत्यक्षदर्शी होने का क्लेम किया पर लफ़त्तू उन्हें अपने एक सवाल से निरुत्तर बना दिया करता: "बेते ये बताओ लाछ को बैथा के गालते हैं या खला कल के?" झाड़ी के बहुत दूर होने से सब कुछ साफ़ नज़र नहीं आया के झूठमूठ बहाने से सत्तू और जगुवा इधर उधर देखने लगे. "मुदे द्‍याउल ने बताया था" कहकर लफ़त्तू इस तरह के सेमिनारों में एक तरह से अध्यक्ष की भूमिका में आ जाया करता. उसने कहीं से पता लगा रखा था कि लकड़ी के बक्से में रख कर लाश को दफ़नाते वक्त उसके साथ लोहे के पाइप का एक टुकड़ा भी रखा जाता है. मेरे इस बाबत सवाल पूछने पर उसने आंखें और छोटी बना कर कहा: "दमीन के नीते बौत अन्देला होता है बेते. मित्ती के अन्दल लाछ दुबाला दिन्दा ओ दाती है. इत्ते अन्देले में कोई देक तो कुत छकता नईं. इतलिए पाइप के तुकले को लकते हैं. लाछ ... आप छमल्लें लोए के तुकले को आंक पे लगाती है औल उत को को थब दिकने लगता है बेते. ..." वह रुक रुक कर रहस्यनामा बांधा करता.

लोहे के पाइप के टुकड़े वाली लफ़त्तू थ्योरी मुझे काफ़ी हद तक सही लगती थी. रातों को जब कभी कभी हम भाई बहन एक दूसरे को डराने के उद्देश्य से भूतप्रेत की कहानियां सुनाया करते थे. मेरे भाई ने कसम खा कर बताया था कि जब वह अपने एक दोस्त के दादाजी के दाह संस्कार में श्मशान गया था तो वहां उसने यहां वहां रखे लोहे के पाइप के कई टुकड़े देखे थे. जब मुर्दा जल रहा होता है तब अगर कोई भी आदमी पाइप के टुकड़े में आंख गड़ा कर देखे तो उसे श्मशान भर में रहने वाले सारे भूत दिख जाते हैं. "दद्दा तूने देखा था?" छोटी ने पूछा, तो उसने असमंजस में सिर डोलाते हुए हां-ना जैसा कुछ कहा. बहरहाल मेरे लिए मृत्यु के साथ लोहे का पाइप अपरिहार्य रूप से जुड़ गया था.

ज्याउल की बड्डे पाल्टी से लौटने के बाद मैं कीचड़ खा कर लौट रहे किसी मरियल पालतू कुत्ते की तरह चोरों जैसा घर में घुसा. पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया. आस पड़ोस की कुछेक औरतें अगले रोज़ 'जै सन्तोसी मां' पिच्चर देखने बनवारी मधुवन जाने का प्लान बना रही थीं. इन स्त्रियों ने इधर हर शुक्रवार को व्रत रखना और खट्टा न खाने का रिवाज़ बना लिया था. लफ़त्तू हर शुक्रवार को मुझे खूब चटनी डलाया बमपकौड़ा अवश्य खिलाया करता. बुध-शुक्र की किसे याद रहती थी. वो तो जब पहली बार ऐसा हो गया तब लफ़त्तू ने नकली शोक जताते हुए कहा कि अब सन्तोसी माता हमें सारे इम्त्यानों में फ़ेल कर देगी. पर रिजल्ट खराब नहीं आया. इस का तात्कालिक अर्थ यह निकाला गया कि शुक्रवार को बमपकौड़ा खाने से कुछ खास परेशानी नहीं होती. हालांकि थोड़ा बहुत डर लगता था कि अगर सन्तोसी माता सच में आ गई तो क्या होगा तो भी जानबूझ कर हर शुक्रवार को किया जाने वाला यह सत्कर्म काफ़ी एडवेन्चरस लगा करता था.

रात को खाना खाते वक्त मां ने पूछा कि मैंने अंगुस्ताना खरीद लिया है या नहीं. मैंने सिर हिलाकर हामी भरी.

अगली सुबह लफ़त्तू स्कूल देर से आया. इन्टरवल के समाप्त होने से मिनट भर पहले. उसका लाल पड़ा चेहरा बतला रहा था कि उसने कोई उल्लेखनीय सफलता अर्जित की है जिस की सूचना वह सार्वजनिक रूप से नहीं दे सकता. बहुत मुश्किल से बीता अगला पीरियड. मैं सबसे आगे बैठता था जबकि लफ़त्तू की शरारतें सबसे पिछली कतारों में बैठने पर ही सम्भव होती थीं. पीरियड के बाद हमें परजोगसाला के बगल वाले हॉल में जा कर सिलाई की कक्षा हेतु भूपेस सिरीवास्तव मास्साब के कमरे में जाना होता था. घन्टा बजते ही लफ़त्तू लपक कर मेरे पास आया और अपना बस्ता साइड से खोल कर उसने अपनी जेब से कुछ नोट निकाल कर दिखाए. "बारा रुपे में बेच दी दीदी की घली" - एक पल को उसका चेहरा दर्प से चमका. मुझे डर लगा.

छुट्टी होते ही हम ज्याउल वाले सैक्शन के बाहर जा कर खड़े हो गए. लफ़त्तू ने कस कर मेरा हाथ थामा हुआ था. ज्याउल बाहर आया तो लफ़त्तू ने ज़ोर की आवाज़ दे कर उसे पास बुलाया. उसके आते ही हम तेज़ तेज़ कदमों से धूल मैदान के एक निविड़ कोने पर हो गए. लफ़त्तू ने अपना बस्ता खोला और उसके अन्दर से चमचम करता लाल पीले रंग का जौमेट्री बक्सा बाहर निकाला. मेरी नज़र खुद गुप्ता पुस्तक भंडार के शोकेस में लगे उस डेबल डेकर को देख कर कई कई बार ललचा चुकी थी.

"ले. अतोक औल मेली तलप से ये तेला बड्डे गिट्ट ऐ याल द्‍याउल." लफ़त्तू की आवाज़ में अपनापा था. उसने एक बार दुबारा कहा : "हैप्पी बड्डे टुय्यू!" ज्याउल जब तक कुछ कहता हम जल्दी से कोना छोड़ सार्वजनिक हो गए और अपने अपने घरों की राह लग लिए. रास्ते में लफ़त्तू ने बताया कि सत्तार सिर्फ़ दस दे रहा था पर किस तरह वह बारा रुपे ले के ही माना. मैंने पूछा कि अगर किसी को पता लग गया तो क्या होगा तो उसने आंख मारते हुए बताया कि उसका नाम भी गब्बर है. घर आने को ही था कि उसने अपना बस्ता दुबारा खोला और ठीक वैसा ही डबल डेकर डब्बा बाहर निकाला और जबरिया मेरा बस्ता खोल कर उसमें ठूंस दिया.

" एक तेले लिए बी लिया मैंने!" मुझे खुशी और भय का संक्षिप्त जॉइंट दौरा पड़ा पर घर के सामने थे हम दोनों अब. जल्द ही छत पर क्रिकेट खेलने आने का वादा करने के उपरान्त "बीयो...ओ...ओ...ई..." कहता लफ़त्तू मटकता, गुनगुनाता अपने घर की तरफ़ चल दिया.

(जारी)

पहला हिस्सा

ज्याउल, उरस की मूफल्ली, मोर्रम और ब्रिच्छारौपड़ - १

पापा के दोस्त इंजीनियर साब का लड़का ज्याउल सिर्फ़ कायपद्दा खेलने हर शाम को आया करता था. पदता था और कटुवा होने के बावजूद हमें प्यारा था. पढ़ने में भौत होस्यार ज्याउल मुझे तब अच्छा लगता था जब वह क्लास में पूछे जाने वाले किसी मुश्किल सवाल का हल मुझसे पहले बतला कर मात्तरों की नकली और थोथी ही सही शाबासी पा लिया करता.

जायदेतर पार्टटाइम करते थे ये मात्तर. जायदेतर मात्तरों की दुकानें थीं और वे इस्लाम, मैमूद, मोम्मद, फ़ैजू, रज्जाक जैसे नाम वाले बच्चों से इतनी हिकारत से पेश आते थे कि उनके मुंह पे थूक देने की इच्छा होती थी. रामनगर आए जितना भी टाइम बीता था हर बखत हिन्दू-मुसलमान हिन्दू-मुसलमान सुनते सुनते हम अघा गए थे. हमें ये बात समझ में भी आने लगी थी कि मैमूद मैमूद होता है और अरविन्द अरविन्द. मैमूद गन्दा होता है. गाय खाता है. नहाता नहीं है. हम उसके घर जाएंगे तो शरबत पिलाएगा मगर पहले उसमें थूकेगा. इसी वजह से शायद लफ़त्तू ने भी ज्याउल को पसंद करना शुरू कर दिया था.

एक बार हमेशा की तरह जब शाम को वह कायपद्दा खेलने आया और बागड़बिल्ले ने उसे चोर बना दिया तो लफ़त्तू ने विरोध जताते हुए कहा: "द्‌याउल नईं बनेगा आद तोल. आत का तोल मैं". ज्याउल ने तनिक हैरत और संशय में सभी उपस्थित खिलाड़ियों को पल भर देखा पर तुरन्त आम के पेड़ पर चढ़ गया. और क्या मज़ाल कि ज्याउल की रफ़्तार का कोई सामना कर पाता. बाद के दिनों में जब जगुवा पौंक एक बार चोर बना तो ज्याउल की रफ़्तार के आगे रोने रोने को हो गया था. असल में उस दिन के बाद ज्याउल कभी चोर बना ही नहीं. लफ़त्तू उसे अपनी वाली डाल पर बुला लिया करता. यह मेरे लिए कुछ दिन डाह का कारण बना रहा.

अलबत्ता लफ़त्तू और मैं अभी ज्याउल के दोस्त नहीं बने थे पर यह एक तरह का आपसी समझदारी का मसला बना ही चाहता था.

एक रोज़ ज्याउल ने हमें अपने घर पे आने का न्यौता दिया बाकायदा हम दोनों के घर आ कर "आंटी, आंटी" कह कर. ज्याउल का बड्डे था.

घर पर उस रात एक महाधिवेशन हुआ जिसमें भाई ने बताया कि साले मुसलिये हर साल ईद से एक महीना पहले किसी हिन्दू के बच्चे को उठा ले जाते हैं. उसे खूब खिला पिला कर मोटा बनाते हैं. ठीक ईद के दिन बच्चे को चावल से भरे एक तसले में लिटाते हैं और तलवार से उसके टुकड़े कर खून रंगे चावलों को पूरे शहर में बाकायदे प्रसाद बांटते हैं. इस से उनका अल्ला खुस होता है. और यह भी कि किसी कीमत पर मैं उस बड्डे पाल्टी में नहीं जा सकता. बहनों के चेहरे हैरत और हिकारत से सन गए थे.

तय यह पाया गया कि मैं तो नहीं जा सकता मुसलिये के घर में. हां बौड़म लफ़त्तू के जो मन आए सो करे. मैंने असहायता में अपनी आंखें भरी भरी महसुस कीं पर उस्ताद लफ़त्तू की बात याद आई कि बेते जो दला वो मला. बेहतरी इसी में थी कि चुप्पा लगा लिया जाए और यह भी कि देखें कौन रोकता है.

घर पे झूठ बोला गया कि आज लच्छमी पुस्तक भन्डार से पेन्सिलें और कि सिलाई क्लास के वास्ते टंडन इश्टोर से नया अंगुस्ताना लाना है. अंगुस्तानों के लिए मांगे गए पैसों के ऐवज़ में किराये पे साइकिल ली और चल पड़े ज्याउल की कालोनी की तरफ़. बड्डे गिट्ट के पैसे नहीं थे लफ़त्तू ने अपने घर से अपनी बहन की लेडीज घड़ी पार कर ली थी जिसे सत्तार मैकेनिक को बेचने की हम दोनों की हिम्मत नहीं पड़ी. "द्‌याउल को दे देंगे याल. कौन थाला उछे पूत लिया ऐ कि कित ने दी. तेला मेला बद्दे गिट्ट ऐ."

लफ़त्तू की बड़ी बहन की घड़ी उसकी जेब में पड़ी ही रही. क्या अजब मंजर उस घर में था. हर कोई एक दूसरे को आप आप कह रहा था. घर भर में कैसी कैसी तो दिलफ़रेब खाने की ख़ुशबुएं और क्या लकदक लकदक चमचम औरतें लड़कियां.

"आइये आइये!" कह कर एक हम उम्र लड़की ने हमारा स्वागत किया. हल्का आसमानी तारों भरा लिबास ही बहुत था हमें अधमरा कर देने को. "आप ज़िया भाई के दोस्त हैं ना?" हमारा उत्तर आने से पहले ही "ज़िया भाई ज़िया भाई आपके दोस्त आए हैं! ..." कहता हुआ आसमानी लिबास उंगलियों के पोरों से अपने को समेटता भाग चला.

ज्याउल ने हमें काजू पड़ी सिवइयां सुतवाईं, और जाने क्या नमकीन नमकीन भी. अन्दर ले जा कर अपने मां बाप से मिलवाया. न सूरत याद रही किसी की न लिबास. बस "अम्मी, अब्बू, बाजी, खाला" वगैरह सुनाई देता रहा. न केक था न प्लेटों में कुन्टल भर चाट भरने वाली गमलू कुच्चू के घर उनके बड्डे वाली वो मुटल्ली औरतें. हां खुसफ़ुस बहुत हो रही थी पर किसी ने हमारी तरफ़ ध्यान तक नहीं दिया. ज्याउल की अम्मी ने हमारे सिरों पर हाथ फेरा और कुछ अल्ला अल्ला कहा और चाबी-ताला जैसा भी.

साइकिल आधे घन्टे के किराए पे थी और यह बात लफ़त्तू ने जल्दी जल्दी ज्याउल को बता दी.

ज्याउल कुछ रेयेक्ट करता इस के पहले ही लफ़त्तू बोल पड़ा: " द्‍याउल तू मेला बाई ऐ याल. तेले मम्मी पापा कित्ते अत्ते ऐं याल. कल ..."

कुछ कहता कहता लफ़त्तू रुक गया.

"तल बेते" कह कर उसने मुझे डंडे पे बिठाया और हम हवा बन कर बजाजा लाइन के नज़दीक मौजूद साइकिल वाले के ठीहे तक पहुंचे. हम शायद थोड़ा लेट थे पर साइकिल वाले ने जायदे तबज्जो नहीं दी.
घर पास आने को हुआ तो लफ़त्तू को अपनी जेब में पड़ी घड़ी याद आई.

"अले याल द्‍याउल का गिट्ट रै गया" उसने मुझे हमेशा की तरह एक बार फिर बच्चा जाना और बोला: "अपने घल दा तू."

मेरे पूछने पर कि वो कहां जा रहा है उसने आंख मारी और सद्यःपारंगत उंगलियों को ख़ास अन्दाज़ में मोड़ते हुए बोला: "वईं! क्वीन कबल कलने! थाले द्‍याउल का गिट्ट तो रै गया. अब कल देंगे तू औल मैं. बलिया वाला."

मैं असमंजस में घासमंडी के मुहाने पर खड़ा था जब उस ने कहा: "किती ते कैना नईं बेते!

(जारी)