Thursday, April 29, 2010

नागड़ादन्गल और दली को आग कैते ऐं

सियाबर बैद जी के रेज़ीडेन्स-कम-औषधालय का बरामदा शामों को मोहल्ले के बड़े लोगों के बीड़ी फूंकने और गपबाज़ी का सबसे प्रिय स्थान था. इस स्थान हमारा वास्ता बस तभी पड़ता था जब कभी कभार क्रिकेट की गेंद के वहां चली जाया करती. बैद जी को देखकर लगता था कि वे पैदा भी गांधी टोपी पहन कर हुए होंगे. बड़ों की गप्पों को सुनते हुए यह पता चलता था कि आज़ादी से कुछ साल पहले बैदजी अंग्रेज़ों से लड़ते हुए एक बार एक दिन को जेल हो आए थे. इस बात से रामनगर भर में बैदजी का में बड़ा रसूख था और आज़ादी के बाद से लगातार हर स्वतन्त्रता दिवस पर उन्हें किसी न किसी स्कूल में मुख्य अतिथि बनाए जाने का रिवाज़ चल चुका था. इतने सारे सालों तक स्वतन्त्रता दिवसों को स्कूलों में मुख्य अतिथि बनने रहने के बावजूद उनके मुख्य अतिथि बनने के उत्साह में कोई कमी नहीं आई थी. रामनगर में पिछले कोई तीस सालों के दौरान पढ़ाई कर चुके हर किसी शख़्स को उनका भाषण करीब करीब याद हो चुका था. पिछले साल इस अवसर पर हमारे स्कूल में उनके आते ही समूचे स्टाफ़ और सीनियर बच्चों में ख़ौफ़नाक चुप्पी छा गई. प्याली मात्तर के जुड़वां भाई जैसे दिखाई देने वाले बैदजी की ज़बान भी ज़रा सा लगती थी. उन्होंने हमारा ऐसीतैसीकरण कार्यक्रम चालू करते हुए बड़ी देर तक प्याले बच्चो, आदरणीए गुरुजन वगैरह किया और हमें बताया था कि उस दिन स्वतन्त्रता दिवस था और हम उसे मना रहे थे. "ऐते बोल्लिया जैते आप छमल्लें हम कोई दंगलात से आए हैं. थब को पता ए बेते आद के दिन गांदी बुड्डा पैदा हुआ था. ..." फुसफुस ज़ुबान में लफ़त्तू सतत बोले चला जा रहा था. जब मैंने उससे कहा कि गांधी बुड्ढा दो अक्टूबर को पैदा हुआ था तो उसने मुझे डिसमिस करते हुए आधिकारिक लहज़े में वक्तव्य जारी किया : "एकी बात ऐ बेते."

अचानक बैदजी एकताल से द्रुत ताल पर आ गए.

"बली बली योजनाएं बन रई ऐं बच्चो देश के बिकास के लिए ... हमाले पैले पलधानमन्त्री नेरू जी ने दिश के बिकास के लिए बली बली योजनाएं बनाईं ... बली बली मशीनें बिदेस से मंगवाईं ... रेलगाड़ियां और मोटरें मंगवाईं ... पानी के औल हवा के जआज मंगवाए ... तब जा के हमाला बिकास हो रा ए ..." अचानक मैंने सीनियर लौंडसमुदाय के भीतर हो रही गतिविधि पर गौर किया. ऐसा लग रहा था कि वे बैदजी के मुंह से पिछले किसी स्वतन्त्रता दिवस के दौरान सुनी हुई किसी मनोरंजक बात के बोले जाने का बेसब्री से इन्तज़ार कर रहे थे. उनके मुखमण्डल बतला रहे थे कि उन पर हंसी का दौरा पड़ा ही चाहता है.

"नेरू जी ने रामनगर में कोसी नदी पर डाम बनाया ... और ऐसे ई कितने ई सारे डाम बनाए ... यहां से बहुत दूर एक जगे पर उन्ने नागड़ा दन्गल जैसा डाम बनाया ... नागड़ा दन्गल जैसा डाम हमारे देश में ई नईं साली दुनिया में नईं ऐ ..." उनके आख़िरी वाक्य को दबी हुई आवाज़ों में एक साथ कई सारे सीनियर लौंडों ने बाकायदा रिपीट किया और हंसी के दौरे चालू हो गए. मुझे लग रहा था कि अब सामूहिक सुताई अनुष्ठान प्रारम्भ होगा लेकिन मुर्गादत्त मास्टर और प्रिंसिपल साहब के अलावे कई सारे मास्टरों के चेहरों पर भी मुस्कराहट थी. इन अध्यापकों ने सम्भवतः यह भाषण इतनी दफ़ा सुन लिया था कि उनकी बला से बच्चे हंसें या जो चाहे करें. बैदजी अपमान की सारी सीमाओं को पार कर चुके थे और नागड़ा दन्गल जैसे कई दन्गल जीत चुकने के बाद शायद गामा पहलवान से भी नहीं डरते थे.

बैदजी का भाषण अभी और चला. दुर्गादत्त मास्साब ने बेशर्मी की हद पार करते हुए कर्नल रंजीत निकाल लिया था और असहाय प्रिंसिपल साहब अपने रिश्ते के मामू की स्थूल तौंद को उठता-गिरता देखने के अतिरिक्त कुछ भी कर पाने से लाचार थे. मौका ताड़कर बेख़ौफ़ लफ़त्तू बैठे बैठे ही घिसटता हुआ ऑडिटोरियम से बाहर निकल चुका था और सम्भवतः अपने प्रिय डेस्टीनेशन तक पहुंच चुका था. बैदजी के बैठ जाने के बाद मुर्गादत्त मास्टर ने हारमोनियम पर अपने घिसे पिटे दोनों गाने बजाए और हमने भी मजबूरी में उनका यथासम्भव बेसुरा साथ दिया. बांसी कागज़ की तेल से लिथड़ी थैलियों में बूंदी के दो-दो लड्डू थमाकर मिष्ठान्न वितरण हुआ और हम अपने घरों की तरफ़ निकल पड़े.

लफ़त्तू रास्ते में ही टकरा गया. उसकी बहती नाक और मिट्टीसनी कमीज़ बता रहे थे कि वह बमपकौड़े का भरपूर लुत्फ़ उठाने के साथ साथ इधर हिमालय टाकीज़ में लगी फ़िल्म विश्वनाथ का अपना फ़ेवरिट सीन देखकर आ रहा था क्योंकि मुझे देखते ही उसने सतरूघन सिन्ना का परम लफ़ाड़ी पोज़ धारण कर लिया और एक हाथ से अपने बालों को तनिक सहलाते हुए सीरियस आवाज़ में कहा: "दली को आग कैते ऐं औल बेते बुदी को लाक ... और उछ आग से निकले बारूद को विछ्छनात कैते हैं" सतरूघन सिन्ना से वह उन दिनों इस कदर इम्प्रैस्ड था कि ज़ेब में हमेशा एक काली स्कैच पैन रखा करता और मौका मिलते ही अपने होंठों पर उसी की शैली की मूंछें बना लेता.

नज़दीक आकर उसने मेरी पीठ पर धौल जमाई और मज़े लेते हुए पूछा: "बन गया बेते थब का नागलादन्गल. तूतिया ऐं थब छाले." फिर उसने ज़मीन पर गिरा एक कागज़ का टुकड़ा उठाया और उसे मोड़कर अपने सिर पर गांधीटोपी की तरह पहन लिया और बैदजी जैसा मनहूस चेहरा बनाते हुए भाषण देना चालू किया: "बली बली योदनाएं बन लई ऐं ... बले आए नेलू जी ... बले बले दाम बन लए ऐं ... तूतिया थाले नेलू जी ... जाज खलीद लए ऐं ... कूला खलीद लए ऐं ... मेले कद्दू में गए छाले बैदजी और नेलू जी ... तल तैलने तलते ऐं याल" उसके चेहरे पर परम हरामियत का भाव आ चुका था और चाल में दान्त तत वाली ठुमक. एक तो बैदजी के भाषण से मैं चटा हुआ था दूसरे बहुत ज़ोरों की भूख लगी हुई थी सो मैंने उसके साथ नहर जाने के उसके प्रस्ताव पर ज़्यादा तवज्जो नहीं दी और अनमना सा होकर घर के भीतर घुसा.

लड्डू वाली थैली मेरी जेब में किसी मरे मेंढक का सा आभास दे रही थी. ऐसे मरे हुए दो-तीन और मेढक घर पर और धरे हुए थे जिन्हें मेरी बहनें अपने अपने स्कूलों से लाई थीं.

बन्टू के दादाजी के मर जाने की वजह से उसके मम्मी पापा अपने गांव गए हुए थे. इन दिनों बन्टू और उसकी बहन हमारे ही घर खाना खाने आया करते और दोपहरों को मेरा ज़्यादातर समय बन्टू लोगों के घर रामनगर के हिसाब से काफ़ी आलीशान उनके ड्राइंगरूम में सजी वस्तुओं को देखने और बन्टू की ढेर सारी मिन्न्तें करने के बाद रिकार्ड प्लेयर पर मुग़ल ए आज़म के डायलाग सुनने में बीतने लगा था. रिकार्ड के शुरू होते ही "मैं हिन्दोस्तान हूं ..." वाली कमेन्ट्री चालू हो जाती और मेरा मन उर्दू की मीठी मीठी आवाज़ों में हलकोरें खाने लगता. कभी कभार मैं उसके पापा के पुस्तक संग्रह पर निगाह मारा करता. इन किताबों के कवर दुर्गादत्त मास्साब की किताबों जैसे ही बल्कि उनसे भी ज़्यादा खतरनाक हुआ करते थे. इन आवरणों को सुशोभित करती नारियों के बदन पर और भी कम कपड़े होते थे.

इस बाबत जब मैंने लफ़त्तू से उसकी राय पूछी तो उसने फिर वही डिसमिस करने वाली टोन में कहा: "सई आदमी नईं ऐं बन्तू के पापा. आप छमल्लें काला तत्मा पैनने वाला आदमी कबी सई नईं हो सकता.

(जारी)

Thursday, April 15, 2010

गब्बल थे बी खतलनाक इन्छान कताई मात्तर

लफ़त्तू की हालत देख कर मेरा मन स्कूल में कतई नहीं लगा. उल्टे दुर्गादत्त मास्साब की क्लास में अरेन्जमेन्ट में कसाई मास्टर की ड्यूटी लग गई. प्याली मात्तर ने इन दिनों अरेन्जमेन्ट में आना बन्द कर दिया था और हमारी हर हर गंगे हुए ख़ासा अर्सा बीत चुका था. कसाई मास्टर एक्सक्लूसिवली सीनियर बच्चों को पढ़ाया करता था, लेकिन उसके कसाईपने के तमाम क़िस्से समूचे स्कूल में जाहिर थे. कसाई मास्टर रामनगर के नज़दीक एक गांव सेमलखलिया में रहता था. अक्सर दुर्गादत्त मास्साब से दसेक सेकेन्ड पहले स्कूल के गेट से असेम्बली में बेख़ौफ़ घुसते उसे देखते ही न जाने क्यों लगता था कि बाहर बरसात हो रही है. उसकी सरसों के रंग की पतलून के पांयचे अक्सर मुड़े हुए होते थे और कमीज़ बाहर निकली होती. जूता पहने हमने उसे कभी भी नहीं देखा. वह अक्सर हवाई चप्पल पहना करता था. हां जाड़ों में इन चप्पलों का स्थान प्लास्टिक के बेडौल से दिखने वाले सैन्डिल ले लिया करते.

कसाई मास्टर की कदकाठी किसी पहलवान सरीखी थी और दसवीं बारहवीं तक में पढ़ने वाले बच्चों में उसका ख़ौफ़ था. थोरी बुड्ढे और मुर्गादत्त मास्टर के धुनाई-कार्यक्रम कसाई मास्टर के विख्यात किस्सों के सामने बच्चों के खेल लगा करते. बताया जाता था कि कसाई मास्टर की पुलिस और सरकारी महकमों में अच्छी पहचान थी और उसके ख़िलाफ़ कुछ भी कह पाने की हिम्मत किसी की नहीं हुआ करती थी. लफ़त्तू के असाधारण सामान्यज्ञान की मार्फ़त मुझे मालूम था कि अगर कभी भी कसाई मास्टर का अरेन्जमेन्ट में हमारी क्लास में आना होगा तो हमें बेहद सतर्क रहना होगा क्योंकि कसाई मास्टर का दिमाग चाचा चौधरी की टेक पर कम्प्यूटर से भी तेज़ चला करता था. यह अलग बात है कि कम्प्यूटर तब केवल शब्द भर हुआ करता था - एक असम्भव अकल्पनीव शब्द जिसके ओरछोर का सम्भवतः भगवान को भी कोई आइडिया नहीं था. लफ़त्तू के कहने का मतलब होता था कि कसाई मास्टर को स्कूल भर में पढ़ने वाले हर बच्चे के विस्तृत बायोडाटा ज़बानी याद थे. "बला खतलनाक इन्छान है कताई मात्तर बेते! बला खतलनाक! गब्बल थे बी खतलनाक!"

तो गब्बरसिंह से भी खतरनाक इस कसाई मास्टर की क्लास में एन्ट्री कोई ड्रामाई नहीं हुई. कसाई ने खड़े खड़े ही बहुत आराम से ख़ुद ही अटैन्डैन्स ली और जब "प्यारे बच्चो!" कहकर कुर्सी पर अपना स्थान ग्रहण किया, मुझे लफ़त्तू की बातों पर से अपना विश्वास एकबारगी ढहता सा महसूस हुआ. कसाईमुख को थोड़ा गौर से देखने पर पता चलता था कि उसकी दाईं आंख बागड़बिल्ले की भांति एलएलटीटी यानी लुकिंग लन्डन टॉकिंग टोक्यो यानी ढैणी थी. बाईं भौंह के बीचोबीच चोट का पुराना निशान उस मुखमण्डल को ख़ासा ख़ौफ़नाक बनाता था. सतरुघन सिन्ना टाइप की मूंछें धारण किये, ऐसा लगता था, मानो कसाई अपने आप को जायदै ही इस्माट समझने के कुटैव से पीड़ित था. कसाई के अधपके बाल प्रचुर मात्रा में तेललीपीकरण के बावजूद किसी सूअर के बालों की तरह कड़े और सीधे थे. उन दिनों पराग पत्रिका में एक उपन्यास धारावाहिक छप कर आ रहा था. उपन्यास का नायक भारत की राष्ट्रीय पोशाक यानी पट्टे के घुटन्ने के अतिरिक्त किसी भी तरह के मेक अप में विश्वास नहीं रखता था. कसाई के अटैन्डेन्स लेते लेते छिप कर देखते हुए एकाध मिनट से भी कम समय में मुझे यकीन हो गया कि उक्त उपन्यास के लेखक ने कसाई मास्टर के चेहरे का विषद अध्ययन करने के बाद ही उपन्यास के नायक का वैसा हुलिया खींचा होगा. मुझे यह कल्पना करना मनोरंजक लगा कि कसाई मास्टर केवल घुटन्ना पहने कैसा नज़र आएगा.

अटैन्डेन्स हो चुकी थी और "प्यारे बच्चो!" कहते हुए कुर्सी में बैठते ही कसाई मास्टर किसी ख्याल में संजीदगी से तल्लीन हो गया. क्लास के बाकी बच्चों की तरह मैं भी अगले दो पीरियड के दौरान किसी भी स्तर के कैसे भी हादसे का सामना करने को तैयार था. अचानक कुर्सी से एक अधसोई सी आवाज़ निकली: "पत्तल में खिचड़ी कितने बच्चों ने खाई है?"

कुछ समय से क्लास में बस कभी कभी ही आने वाले लालसिंह के सिवाय किसी भी बच्चे का हाथ नहीं उठा. लालसिंह के उठे हुए हाथ को ख़ास तवज्जो न देते हुए कसाई मास्टर ने कहा - "यहां से कुछ दूरी पर कालागढ़ का डाम हैगा. मैं सोच रहा हूं कि तुम सारे बच्चों को किसी इतवार को म्हां पे पिकनिक पे ले जाऊं. आशीष बेटे, ह्यां कू अईयो जरा!" आशीष क्लास में नया नया आया था और वह भी अपने आप को जायदै ही इस्माट समझने के कुटैव से पीड़ित था. उसका बाप रामनगर का एसडीएम टाइप का बड़ा अफ़सर था और यह तथ्य उसकी हर चालढाल में ठसका ठूंसने का वाज़िब और निहायत घृणास्पद कारण था. कि कसाई मास्टर आशीष को नाम से जानता है, हमारे लिए क्षणिक अचरज का विषय बना. आशीष कसाई मास्टर की बगल में खड़ा था. मास्टर का अभिभावकसुलभ प्रेम से भरपूर हाथ उसकी पीठ फेर रहा था. "आशीष के पिताजी रामनगर के सबसे बड़े अफ़सर हैंगे. कल मुझे इनके घर खाने पर बुलवाया गया था. व्हईं मुझे जे बात सूझी की आशीष की क्लास के सारे बच्चों को कालागढ़ डाम पे पिकनिक के बास्ते ले जाया जाबै. और साहब ने सरकारी मदद का मुझे कल ही वादा भी कर दिया है. तो बच्चो अपने अपने घर पे बतला दीजो कि आने बालै किसी भी इतवार को पिकनिक का आयोजन किया जावैगा. पिकनिक में देसी घी की खिचड़ी बनाई जाएगी और उसे पत्तलों में रखकर सारे बच्चे खावेंगे. खिचड़ी खाने का असल आनन्द पत्तल में है. ..."

खिचड़ी, पत्तल, देसी घी, कालागढ़, डाम, साहब, आशीष, पिकनिक इत्यादि शब्द पूरे पीरियड भर बोले गए और कसाई मास्टर का हाथ लगातार आशीष की पीठ को सहलाता रहा. घन्टी बजने ही वाली थी जब "ऐ लौंडे, तू बो पीछे वाले, ह्यां आइयो तनी!"

पैदाइशी बौड़म नज़र आने वाले इस लड़के का नाम ज़्यादातर बच्चे नहीं जानते थे. उसकी पहचान यह थी कि उसके एक हाथ में छः उंगलियां थीं. कसाई मास्टर की टोन से समझ में आया कि पैदाइशी बौड़म को कुछ खुराफ़ात करते हुए देख लिया गया था. वह मास्टर की मेज़ तक पहुंचा, कसाई ने एक बार उसे ऊपर से नीचे तक देखा. "जरा बाहर देख के अईयो धूप लिकल्लई कि ना." क्लास का दरवाज़ा खुला था और अच्छी खासी धूप भीतर बिखरी पड़ी थी. पैदाइशी बौड़म की समझ में ज्यादा कुछ आया नहीं लेकिन डर के मारे कांपते हुए कक्षा के बाहर जाकर आसमान की तरफ़ निगाह मारने अलावा उसके पास कोई चारा नहीं था. वापस लौटकर उसने हकलाते हुए कहा "न्न्निकल रही मास्साब..."

"तो जे बता कि धूप कां से लिकला करे?" पैदाइशी बौड़म ने फिर से हकलाते हुए कहा "स्स्सूरज से मास्साब ..."

"जे बता रात में क्या निकला करे?" पैदाइशी बौड़म के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना कसाई ने कहा: "रात में लिकला करै चांद. और चांद की वजै से रात में तारे भी लिकला करै हैं. तारे वैसे तो दिन में भी लिकला करै हैं पर सूरज की वजै से दिखाई ना देते."

पैदाइशी बौड़म के कन्धे पर हाथ रखकर क्रूर आवाज़ में कसाई मास्टर बोला: "इस बच्चे को दिन में तारे देखने का जादै सौक हैगा सायद जभी तो खीसें निपोर रिया था." इतना कहते कहते उसने अपनी कमीज़ की जेब से एक नई पेन्सिल निकाली और पैदाइशी बौड़म के छः उंगली वाले हाथ को ज़ोर से अपनी मेज़ पर रख दिया. किसी कुशल कारीगर की भांति उसने पैदाइशी बौड़म की उंगलियों के बीच एक ख़ास स्टाइल में पेन्सिल फ़िट की और अगले ही क्षण अपने दूसरे हाथ से पैदाइशी बौड़म के हाथ को इतनी ज़ोर से दबाया कि उसकी आंखें बाहर आने आने को हो गईं. उसकी बाहर निकलने को तैयार आंखों के कोरों से आंसू की मोटी धार बहना शुरू हो गई थी. करीब आधा मिनट चले इस जघन्य पिशाचकर्म को भाग्यवश पीरियड की घन्टी बजने से विराम मिला. मास्साब ने पेन्सिल वापस अपनी जेब में सम्हाली और वापस लौटते पैदाइशी बौड़म की पिछाड़ी पर एक भरपूर लात मारते हुए हमें चेताया: "सूअर के बच्चो! मास्साब की बात में धियान ना लगाया और जादै नक्सा दिखाया तो एक एक को नंगा कर के लटका दूंगा."

पैदाइशी बौड़म के प्रति किसी प्रकार की सहानुभूति व्यक्त करने का मौका नहीं मिल सका क्योंकि तिवारी मास्साब क्लास के बाहर खड़े थे. तिवारी मास्टर उर्फ़ थोरी बुड्ढे ने गुलाबी तोता बनाने में हमें पारंगत बना चुकने के बाद इधर दोएक महीनों से इस्कूल जाती लौण्डिया बनवाना चालू किया था. कन्धे पर बस्ता लगाए और दो हाथों में गुलदस्ता थामे स्कर्ट-ब्लाउज़ पहनने वाली घुंघराले बालों वाली यह बदसूरत लौण्डिया बनाना ज़्यादातर बच्चों को अच्छा लगता था. लफ़त्तू की रफ़ कॉपी इस्कूल जाती लौण्डिया के बेडौल अश्लील चित्रों से अटी पड़ी थी.

किसी तरह स्कूल खत्म हुआ. मैं मनहूसियत और परेशानी का जीता जागता पुतला बन गया था लफ़त्तू के बिना. घर पहुंच कर बेमन से मैंने कुछ दूध नाश्ता समझा और कपड़े बदल कर नहर की तरफ़ चल दिया. मैं नहर की दिशा में मुड़ ही रहा था कि घासमण्डी के सामने की अपनी दुकान से लालसिंह ने आवाज़ लगाकर मुझे बुलाया. अभी वह स्कूल की पोशाक में ही था. उसके पापा कहीं गए हुए थे और वह लफ़त्तू को लेकर चिन्तित था. उसने मुझे लफ़त्तू का सबसे करीबी दोस्त समझा, इतनी सी बात से ही मेरी मनहूसियत कुछ कम हो आई. सही बात तो यह थी कि मुझे पता ही नहीं था कि लफ़त्तू को असल में क्या हुआ था. वह बीमार था और बहुत बीमार था. बस. मैंने लालसिंह को सुबह वाली बात बता दी कि कैसे मैंने लफ़त्तू के मम्मी-पापा को उसे मुरादाबाद वाली बस की तरफ़ ले जाते देखा था और कैसे वह कांप रहा था गर्मी के बावजूद.

लफ़त्तू के बारे में दसेक मिनट बातें करने के बाद मेरे मन से जैसे कोई बोझा उतरा. लालसिंह ने दूध-बिस्कुट सुतवाया. पेट भरा होने के बावजूद लालसिंह की दुकान का दूध बिस्कुट कभी भी पिरोया जा सकता था. दूध-बिस्कुट सूतते हुए अचानक मेरी निगाह पसू अस्पताल की तरफ़ गई. जब से गोबरडाक्टर कुच्चू गमलू नाम्नी हमारी काल्पनिक प्रेयसियों के साथ हल्द्वानी चला गया था, मेरी उस तरफ़ देखने की इच्छा तक नहीं होती थी.

मुझे अनायास उस तरफ़ देखता देख लालसिंह कह उठा - "ये नया गोबरडाक्टर साला अपने बच्चों को लेकर नहीं आनेवाला है बता रहे थे. नैनीताल में पढ़ती है इसकी लौण्डिया. भौत माल है बता रहा था फ़ुच्ची ..."

फ़ुच्ची! यानी फ़ुच्ची कप्तान! नैनीतालनिवासिनी कन्या के बाबत चलने ही वाली मसालापूरित बातचीत को मैंने काटते हुए लालसिंह से पूछा कि फ़ुच्ची कप्तान कहां है. "अबे कल ही वापस आया है फ़ुच्ची रामनगर. साला और काला हो गया है. ..."

फ़ुच्ची के रामनगर पुनरागमन के समाचार ने मुझे काफ़ी प्रसन्न किया. फ़ुच्ची मेरे उस्ताद लफ़त्तू का भी उस्ताद था सो उसके माध्यम से लफ़त्तू के स्वास्थ्य के बारे में आधिकारिक सूचना प्राप्त कर पाने की मेरी उम्मीदों को बड़ा सहारा मिला. लालसिंह की दुकान से नहर की तरफ़ जाने के बजाय मैं अपने घर की छत पर पहुंच गया. दर असल मैं कुछ देर अकेला रहना चाहता था. बन्टू को वहां न पाकर मुझे तसल्ली हुई. अपनी छत फांदकर मैं ढाबू की छत पर मौजूद पानी की टंकी से पीठ टिकाए बैठने ही वाला था कि उधर हरिया हकले वाली छत की साइड से बागड़बिल्ला आ गया. लफ़त्तू और फ़ुच्ची जैसे घुच्ची-सुपरस्टारों की गैरमौजूदगी के कारण बागड़बिल्ला अब तकरीबन बेरोजगार हो गया था और दिन भर आवारों सूअरों की तरह यहां वहां भटका करता. नीचे सरदारनी के स्कूल में मधुबाला ट्य़ूशन पढ़ने आए बच्चों को कोई इंग्लिश पोयम रटा रही थी. कुछ देर इधर उधर की बातें करने के बाद बागड़बिल्ले ने असली बात पर आते हुए मुझसे आर्थिक सहायता का अनुरोध किया. दर असल उसे घर से अठन्नी देकर दही मंगवाया गया था. हलवाई की दुकान तक पहुंचने से पहले ही घुच्ची खेल रहे बच्चों को देख कर उससे रहा नहीं गया जहां वह पांच मिनट में सारे पैसे हार गया. बागड़बिल्ले जैसे टौंचा उस्ताद का घुच्ची में हारना आम नहीं होता था. मेरे पास पच्चीस तीस पैसे थे जो मैंने उसे अगले दिन वापस किये जाने की शर्त पर उसे दे दिये, हालांकि मैं जानता था कि बागड़बिल्ला किसी भी कीमत पर उन पैसों को वापस नहीं चुका सकेगा. वह बहुत गरीब परिवार से था और उसकी मां इंग्लिश मास्टरानी के घर बर्तन-कपड़े धोने का काम किया करती थी. जाते जाते उसने एक बात कहकर मुझे उत्फुल्लित कर दिया - "फ़ुच्ची तुझे याद कर रहा था यार!" मेरे यह पूछने पर कि फ़ुच्ची कहां मिलेगा उसने अपनी चवन्नी जैसी आधी आंख को चौथाई बनाते हुए दोनों हाथों की मध्यमा उंगलियों को मिला कर घुच्ची का सार्वभौमिक इशारा बनाते हुए कहा - "वहीं! और कहां!"

मैं नीचे उतर कर भागता हुआ साह जी की आटे की चक्की के आगे से होता हुआ घुच्चीस्थल पहुंचा पर खेल निबट चुका था और खिलाड़ियों के बदले वहां नाली पर पंगत बनाकर बैठे छोटे बच्चे सामूहिक निबटान में मुब्तिला थे. ये इतने छोटे थे कि उनसे अभी अभी सम्पन्न हुए खेल और उसके खिलाड़ियों के बारे में कोई जानकारी हासिल हो पाने का कोई मतलब नहीं था.

घुच्चीस्थल से आगे का जुगराफ़िया मेरे लिए ज़्यादा परिचित न था सो मैं मन मारे वापस घर की तरफ़ चल दिया. बस अड्डे पर आखिरी गाड़ी आ लगी थी. और दिन होता तो लफ़त्तू और मैं डिब्बू तलाशने वहां ज़रूर जाते. माचिस के लेबेल इकठ्ठा करने के शौक को किनारे कर हमने तीन चार महीनों से डिब्बू यानी सिगरेट के खाली डिब्बे इकठठा करने का शौक पाल लिया था. डिब्बू इकठ्ठा करना माचिस के लेबेल इकठ्ठा करने की बनिस्बत ज़्यादा एडल्ट माना जाता था क्योंकि डिब्बुओं के साथ भी घुच्ची जैसा एक जुए वाला खेल खेला जा सकता था.

इतने में मेरी निगाह बस से बाहर उतरते मनहूस सूरत बनाए लफ़त्तू के पापा पर पड़ी. बस से बाहर उतरने वाले वे आखिरी आदमी थे. यानी लफ़त्तू और उसकी मां वहीं हैं मुरादाबाद में. मेरा अनुमान गलत भी हो सकता था क्योंकि यह सम्भव था कि वे दोनों दिन के किसी पहर वापस लौट आए हों और ... और ...

गांठ लगा वही थैला लफ़त्तू के पापा के कन्धे पर टंगा था. दिन भर की पस्ती और थकान उनके चेहरे और देह पर देखी जा सकती थी. मेरे लिए यह निर्णायक क्षण था. मैं लपकता हुआ उनके सामने पहुंचा और "नमस्ते अंकल" कह कर उनके सामने स्थिर हो गया. उन्होंने अपना धूलभरा चश्मा आंखों से उतारा और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए मरियल आवाज़ में कहा "जीते रहो बेटे, जीते रहो."

"अंकल लफ़त्तू ..."

"भर्ती करा दिया बेटा मुरादाबाद में उसको. तेरी आन्टी भी वहीं है ..."

मुझे लफ़त्तू को अस्पताल में भर्ती कराए जाने की इमेज काफ़ी मैलोड्रैमैटिक और फ़िल्मी लगी और मुझे पिक्चरों में देखे गए सफ़ेद रंग से अटे अस्पतालों और मरीज़ों वाले सारे सीन याद आने लगे. मैं कुछ और पूछता, वे मेरे सामने से घिसटते से अपने घर की दिशा में चल दिए.

Thursday, April 8, 2010

बेते हाती हाती होता ऐ औल दानवल दानवल

लफ़त्तू की सतत उदासी और उसका ज़्यादातर ख़ामोश रहना मेरी बरदाश्त से बाहर हो गया था. तैराकी की मौज के बाद हम जब भी कायपद्दा खेलने की शुरुआत करते, लफ़त्तू बिना कोई नोटिस दिए नहर से बाहर आकर पिछले रास्ते से हाथीखाने की तरफ़ निकल जाया करता. हाथीखाना मुझे बहुत आकर्षित करता था लेकिन मुझे घर से वहां तक जाने की इजाज़त नहीं थी क्योंकि हाथीखाना पाकिस्तान के पिछवाड़े में स्थित था.

रोज़ सुबह हमारे स्कूल जाने से पहले एक हाथी अपने महावत के साथ घर के बाहर से गुज़रा करता. हाथी जाहिर है वैसा ही था जैसा कि हाथी होता है. रामनगर के अपने बिल्कुल शुरुआती दिनों में मेरे और मेरी बहनों के लिए वह दुनिया का सबसे बड़ा अजूबा था. एकाध किताबों में मैं उसे देख चुका था पर वह इतना बड़ा होगा, मेरी कल्पना से बाहर था. धीरे धीरे वह रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा बन गया और हमें उसकी ऐसी आदत पड़ गई थी कि अपने ऐन बगल में गुज़रते हाथी को देख कर भी हम कभी कभी उसे नहीं देखते थे. हां अगर चाचा या मामा वगैरह के बच्चे किन्हीं छुट्टियों में हमारे घर आते तो हम उन्हें सबसे पहले बताते कि हमारे घर के सामने से रोज़ सुबह हाथी गुज़रता है - सच्ची मुच्ची का हाथी. ऐसा बताते हुए हमें अपार गर्व महसूस होता और काफ़ी सारा सुपीरियोरिटी कॉम्प्लेक्स भी. तब लगता था जैसे वह हमारा अपना हाथी हो.

जंगलात डिपार्टमेन्ट के इस हाथी के मुतल्लिक मेरी चन्द ऑफ़ीशियल उत्सुकताओं के बाबत मुझे लफ़त्तू कई जीकेनुमा जानकारियां मुहैय्या करवा चुका था. मसलन "हाती एक बाल में इत्ती तत्ती करता ऐ बेते कि नगलपालिका का बमपुलिछ दो बाल भल जाए" या "छुबै नाछ्ते में एक पेल खाता ऐ हाती" "हाती का द्लाइबल हाती की पीथ पल ई तोता ऐ क्यूंकि दलाइबल के बिना उतको नींद नईं आ छकती." इस लास्ट वाली सूचना को लेकर एक दफ़ा बागड़बिल्ले और लफ़त्तू के बीच एक सेमिनार कायपद्दा खेलते वक़्त आयोजित किया जा चुका था. बागड़बिल्ले का विचार था कि हाथी पहली बात तो सोते ही नहीं और अगर सोते हैं तो लेट कर और वो भी उल्टा लेट कर. ऐसे में महावत के उसकी पीठ पर सोने की बात तर्कसंगत नहीं लगती थी. बागड़बिल्ला यह भी कहा करता था कि अगर महावत का दिमाग खराब होगा तभी वह बैठ कर सोने की नौकरी करेगा. वह भी एक जानवर की पीठ पर. लफ़त्तू हारने हारने को था जब उसने अपनी प्रत्युत्पन्नता का परिचय दिया. "बेते मैं तो बैथ के बी छो छकता ऊं औल खले हो के बी."

कायपद्दे को संक्षिप्त ब्रेक देकर उसने खड़े होकर आंखें मूंदीं और बाकायदा खर्राटे निकाले. मिनट भर यह ठेटर करने के उपरान्त वह एक पेड़ के ठूंठ पर बैठा और फिर से आंखें मूंद कर खर्राटे मारने लगा. जब तक बागड़बिल्ला कुछ तर्क सोच पाता लफ़त्तू चिल्लाकर आंख मारता हुआ बोला "औल बेते हाती हाती होता ऐ औल दानवल दानवल ... बी यो ओ ओ ओ ई ..."

लफ़त्तू के उदासीन हो जाने से बन्टू भीतर ही भीतर ज़्यादा प्रसन्न और सन्तुष्ट लगने लगा था. चूंकि मेरे पास लफ़त्तूसान्निध्यरहित समय कुछ ज़्यादा रहने लगा था, बन्टू मेरे जीवन में चरस बोने का काम ज़्यादा सिन्सियरिटी के साथ करने लगा था. अपने विदेशी मामा के लाए पुराने सामान में से उसने एक टूटा हुआ विदेशी परकार मुझे बतौर उपहार दिया. इस टूटे परकार में पेन्सिल फंसाने वाले हिस्से की कील टूट गई थी और किसी भी जुगाड़ टैक्नीक के प्रयोग से उसकी मदद से किसी भी तरह का गोला नहीं बनाया जा सकता था. इस टूटे परकार का यू एस पी यह था कि उसकी मूठ पर अंग्रेज़ी में साफ़ साफ़ ’मेड इन इंग्लैण्ड’ लिखा हुआ था. मेरे पर्सनल कलेक्शन में यह पहली इम्पोर्टेड चीज़ थी. तनिक झेंप और अस्थाई ग्लानि के बावजूद मुझे बन्टू का ऐसा करना अच्छा लग रहा था. मुझे पता था कि लफ़त्तू इस काम का हर हाल में सार्वजनिक विरोध करता.

बन्टू के संसर्ग में अजीब हॉकलेट टाइप की चीज़ों में मन लगाना पड़ता था. इधर कुछ दिनों से मेरी पेन्सिल की मांग ज़्यादा हो गई थी और मां हर रोज़ पेन्सिल मांगने पर सवालिया निगाहों से देखा करने लगी थी. मैं उसे पिछले ही दिन ली गई तकरीबन खत्म हो चुकी पेन्सिल दिखा कर कहता कि उनको बार बार छीलना पड़ रहा है क्योंकि उनकी नोंकें छीलते ही टूट जाया कर रही हैं.

दर असल बन्टू ने कहीं से यह वैज्ञानिक सूचना प्राप्त कर ली थी कि पेन्सिल की छीलन को दो हफ़्तों तक पानी में डुबो कर रखा जाए तो वे रबर में तब्दील हो जाती हैं. सो हम दिम भर अपनी पेन्सिलें छीलते और अपने अपने प्लास्टिक के टूटे डब्बों में छीलन को इकठ्ठा करते जाते. ये डब्बे ढाबू की छत के एक मुफ़ीद हिस्से में रखे जाते थे जहां जाकर हर शाम को अपने अपने छीलभण्डार का मुआयना किया जाता. दसेक दिन में हम दोनों के डब्बे तकरीबन भर गए. एक दिन बाकायदा नियत किया गया और इन डिब्बों में पानी डाला गया.

जैसा तैसा खेल वगैरह चुकने के बाद घर जाते समय हम इन डब्बों को नाक तक ले जाते और गहरी सांसों से सूंघा करते. दो तीन दिन तक तो कोई खास बू नहीं आई पर उसके बाद छीलन सड़ने लगी और डब्बों से गन्दी बास सी आने लगी. "मेरे मामा का लड़का बता रहा था कि शुरू में बदबू आएगी पर पन्द्रह दिन में वह मटेरियल खुशबूदार रबड़ में तब्दील हो जाएगा."

मैं असमंजस में रहता कि बन्टू की बात का यक़ीन करूं या नहीं.

इधर लफ़त्तूने न सिर्फ़ स्कूल आना बन्द कर दिया था, वह हमारे साथ तैरने आना भी बन्द कर चुका था. यह बदलाव मेरे लिए एक बहुत बड़ी पर्सनल ट्रैजेडी था.

एक दिन तैराकी के बाद जब हम कायपद्दा खेलने को पितुवा लाटे के आम के बगीचे का रुख कर रहे थे तो मैंने लफ़त्तू को धीमी चाल से हरिया हकले की छत की तरफ़ जाते देखा. वह खासा मरियल हो गया था या लग रहा था. न उसकी चाल में वह मटक बची थी न शरारतों में उसकी कोई दिलचस्पी.

अड्डू का पीछा करते दौड़ते हुए भी चोर निगाह से मैंने उसे हरिया हकले का ज़ीना चढ़ते हुए देख लिया. दसेक मिनट बाद मैंने बहाना बनाकर हरिया हकले के ज़ीने की राह ली. हरिया की छत पर पहुंचते ही मैंने जिस पहली चीज़ पर ग़ौर किया वह थी हवा में फैली टट्टी की मरियल सी गन्ध. उसके बाद मेरी निगाह लफ़त्तू पर गई जो हमारी छत पर जा चुकने के बजाय ढाबू की छत पर खड़ा बड़ी हिकारत से किसी चीज़ को ध्यान से देख रहा था. उसने मुझे देखा तो उसके चेहरे की हिकारत एक डिग्री बढ़ गई.

हमारी छत की तरफ़ कूदते हुए उसने मुझसे पूछा: "ये दब्बे में कुत्ते की तत्ती तूने लखी थी लबल बनाने को?"

मेरे दबी ज़ुबान में हां कहने पर उसने ज़मीन पर थूका और कहने लगा "तूतिया थाला! मैंने का ता ना कि ये बन्तू के चक्कल में पलेगा तो तूतिया बन दाएगा"

मैं ढाबू की छत पर था. हमारे दोनों डिब्बों के भीतर का बदबूदार गोबर सरीखा असफल वैज्ञानिकी उत्पाद बिखरा पड़ा था और वाक़ई बहुत बास मार रहा था.

मैं जब तक कुछ कहता मुझे अपने पीछे आ चुके बन्टू की आवाज़ सुनाई दी "ये किसने किया बे?"

बन्टू को सुनते ही लफ़त्तू पलटा. बन्टू बोल रहा था "आज रात की बात थी बे. मेरे मामा का लड़का बता रहा था कि कल से इसमें खुशबू आ जाती और बढ़िया रबर बन जाता." वह वहीं खड़ा हुआ था और बास के बावजूद गोबर के बगल में खड़ा बना हुआ था.

विदेशी मामा के बेटे का ज़िक्र आते ही लफ़त्तू फट पड़ा "तेले मामा के इंग्लैन्द में बनाते होंगे कुत्ते की तत्ती छे लबल छाले. गब्बल कोई तूतिया ऐ बेते! ... और छुन ..." इतने दिनों तक अदृश्य रहे लफ़त्तू का यह रूप मुझे बहुत अच्छा लग रहा था. मेरा मन कर रहा था कि उसका हाथ थाम कर सीधा बमपकौड़े वाले ठेले तक भाग चलूं. लफ़त्तू ने हाल में सीखा हुआ डायलाग जारी किया " बन्तू बेते वो दमाने लद गए दब गधे पकौली हगते थे."

लफ़त्तू द्वारा बन्टू को डांटे जाने का सिलसिला कोई दो मिनट और चला और ज़रा देर में हम दोनों वाकई बमपकौड़े के ठेले की तरफ़ जा रहे थे. मैं आश्वस्त था कि लफ़त्तू के पास पैसे ज़रूर होंगे. लफ़त्तू के सिर्फ़ एक बमपकौड़ा मंगवाया. मेरे वास्ते. "याल मुदे मना कला ऐ दाक्तल ने. तू खा."

पकौड़ा उसी दिव्य स्वाद से लबरेज़ था. लेकिन उस से मिली ऊर्जा के बावजूद मैं लफ़त्तू की बीमारी के बारे में उस से पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. मैं ’दोस्ती’ फ़िल्म का कोई डायलाग भी याद करने की कोशिश कर रहा था.

चुपचाप घर का रुख करते हुए लफ़त्तू ने बस अड्डे पर रुकी एक बस की ओट में पेशाब करते समय मुझे बताया कि उसे रोज़ रात को भयानक बुखार आता है और वह सो नहीं पाता और यह भी कि शायद कल उसे किसी बड़े डाक्टर को दिखाने मुरादाबाद ले जाया जाने वाला है.

मुझे रात को बहुत देर नींद नहीं आई. सुबह मैं स्कूल जाने को सड़क पर उतरा तो देखा कि एक हाथठेले पर लेटे लफ़त्तू को बस अड्डे की तरफ़ ले जाया जा रहा था. हाथ में गांठ लगा एक थैला थामे उसके पापा आगे आगे थे. ठेला धकेलने वाले पहलवान के पीछे सुबकती हुई उसकी दुबली मां थी और उसकी बड़ी बहन. उन के ठीक पीछे एक और ठेला चला अ रहा था जिसमें रोज़ की तरह भैंस का मीट ले जाया जा रहा था. शेरसिंह की दुकान के इस हिस्से से मन्द गति से आ रहे हाथी की सूंड़ दिखाई देने लगी थी.

मैंने असहाय निगाहों से लफ़त्तू की तरफ़ देखा. वह बुरी तरह कांप रहा था और गर्मी के मौसम के बावजूद उसने कम्बल ओढ़ा हुआ था. मुझ से और नहीं देखा गया. अपनी भर आई आंखों के किनारों को जल्दी जल्दी पोंछता हुआ मैं स्कूल की तरफ़ भाग चला.